ग़म (कविता)| Hazratji Molana Yousuf| Dawat-e-Tabligh

आते हैं दूर-दूर से दीवाना-ए-बहार, दामन में अपने भरते हैं गुल हाय यूसुफ़ी। ग़म (कविता)| Hazratji Molana Yousuf| Dawat-e-Tabligh…

ग़म (कविता)| Hazratji Molana Yousuf| Dawat-e-Tabligh
ग़म (कविता)| Hazratji Molana Yousuf| Dawat-e-Tabligh

ग़मे कुदवा-ए-बारगाह

(सन् 1384 हि०)

-फ़ानी कोपागंजी

अल्लाह रे यह जलवा-ए-लैला-ए-यूसुफ़ी,

दोनों जहां हैं मह्वे तमाशाए यूसुफ़ी ।

 उस मर्दे पाकबाज़ की सई-ए-ख़जिस्ता से, 

जरें में गुम हैं वुसअते सहराए यूसुफ़ी ।

अंबार इस क़दर हैं मज़ामीने ताज़ा के

बिखरे हुए हों जैसे गुहर हाए यूसुफ़ी।

आते हैं दूर-दूर से दीवाना-ए-बहार, 

दामन में अपने भरते हैं गुल हाय यूसुफ़ी। 

ताज़ा था उनकी जात में पैग़ामे जिंदगी,

साज़े अजल है ज़मज़मा पैराए यूसुफ़ी।

होने लगी थी सारे ज़माने में सुबह सी,

इस तरह मुस्कराई थी लैला-ए-यूसुफ़ी।

करते थे पेश फ़लसफ़ा-ए-जिंदगी का राज़,

क़ुरआं की रौशनी में वरक़ हाय यूसुफ़ी। 

इरफ़ान व आगही की मुरक़्क़ा थी उनकी जात 

जारी है उनके फ़ैज़ से दरिया-ए-यूसुफ़ी।

आई हरीमे ग़ैब से फ़ानी निदा-ए-दर्द

छाया है दिल पे नाला-ए-ग़म हाय यूसुफ़ी।

(सन् 1384 हि०)

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