हदीस kisko कहते हैं ? | बच्चे को ilm देना और तरबियत करना – Dawat~e~Tabligh

हदीस पढने का शौक। हदीस पढने वाला। फ़क़ीह किसको कहते हैं ? इल्म हासिल किया। हदीस kisko कहते हैं ? | बच्चे को ilm देना और तरबियत करना – Dawat~e~Tabligh in Hindi…

हदीस kisko कहते हैं ? | बच्चे को ilm देना और तरबियत करना - Dawat~e~Tabligh
हदीस kisko कहते हैं ? | बच्चे को ilm देना और तरबियत करना – Dawat~e~Tabligh

इल्म हासिल करना

  • हज़रत अब्दुल्लाह की पैदाइश

मुबारक की शादी हो गई और दोनों मियां-बीवी ख़ुशी-खुशी रहने लगे। मुबारक जैसे ख़ुद नेक थे वैसे ही उनकी बीवी भी हज़ारों लाखों में एक थी। थोड़े दिनों के बाद अल्लाह ने उनको एक चांद-सा बेटा दिया। मां-बाप की ख़ुशी की कोई इंतिहा न थी। बेटे का नाम अब्दुल्लाह रखा और वह वाक़ई अब्दुल्लाह ही साबित हुए। यह वह अब्दुल्लाह हैं जिनके इल्म व तक़वा की पूरी दुनिया में धूम हुई जो मधिक व मगरिब के आलिम कहलाए। जो इस्लाम का चलता-फिरता नमूना थे और अब्दुर्रहमान बिन मेहदी रह० और अहमद बिन हंबल रह० जैसे बुजुर्ग उनके शागिर्द थे ।

थोड़े दिन के बाद उस तुर्की ताजिर का इंतकाल हो गया और उसके माल व दौलत का एक बड़ा हिस्सा हज़रत अब्दुल्लाह के वालिद हज़रत मुबारक को मिला। यह सारी दौलत हज़रत अब्दुल्लाह के काम आई नेक बाप ने बेटे की तालीम पर सारी दौलत बहा दी, और ख़ुदा का करना कि हज़रत अब्दुल्लाह रह० हदीस के इमाम कहलाए।

वतन

हज़रत अब्दुल्लाह का असली वतन मर्व है। इसी वजह से उनको सर्वजी कहते हैं। मर्व खुरासान में मुसलमानों का बहुत पुराना शहर है। यहां कभी इस्लामी तालीम और दीनदारी का दौर दौरा था। हर तरफ़ दीन व ईमान के चर्चे थे। बड़े-बड़े आलिम और बुजुर्ग यहां पैदा हुए जिन्होंने अल्लाह के दीन और रसूल पाक सल्ल० की अहादीस की खूब ख़िदमत की।

बच्चे को इल्म देना और तरबियत करना 

  • इब्तिदाई जिंदगी

नेक मां-बाप ने हज़रत अब्दुल्लाह की तालीम व तर्बियत में कोई कसर न उठा रखी। शुरू ही से इंतिहाई शफ़क़त व मुहब्बत से उनकी परवरिश की। दीन व अलाक की बातें सिखाई नेकी और भलाई की तालीम दी कुरआन शरीफ़ समझ समझ कर पढ़ाया, प्यारे रसूल सल्ल० की हदीसें पढ़ाईं और हर तरह एक भला इंसान बनाने की कोशिश की। मां-बाप खुद नेक थे और उनकी यह दिली तमन्ना थी कि उनका बेटा भी दुनिया में नेक बनकर चमके ।

लेकिन शुरू में उनकी तमाम कोशिशें बेकार गई। अब्दुल्लाह दिन-रात खेल-कूद में मस्त रहते, हर काम में लापरवाही बरतते, हर वक़्त बुराइयों में फंसते रहते, गाना-बजाना और ऐश उड़ाना ही उनका दिन-रात का महबूब मशगला था, और जवानी में तो यार-दोस्तों के साथ पीना-पिलाना भी शुरू हो गया। रात-रात भर दोस्तों की महफ़िलें जमी रहतीं, सितार बजते, गाना होता और शराब का दौर चलता ।

हदीस किसको कहते हैं ? 

प्यारे रसूल सल्ल० ने अपनी मुबारक ज़िंदगी में जो कुछ किया और फ़रमाया, प्यारे सहावा रजि० ने उसको देखा, सुना, बाद रखा और उस पर अमल किया। इसी का नाम हदीस है। सहावा रज़ि० चूंकि दीन की तब्लीग के लिए मुख्तलिफ़ शहरों में फैल गए थे और अल्लाह की राह में जिहाद करने के लिए मुल्कों मुल्कों में घूमते थे इसलिए हदीस का शौक रखनेवाले उनके पते मालूम करके दूर-दूर से सफ़र करके उनके पास पहुंचते, उनसे हदीसें सुनते, लिखते और याद करते सहाबा किराम रजि० को देखनेवाले उन बुज़ुर्गों को तावईन कहते हैं। फिर रसूल पाक सल्ल० के प्यारे सहावा रज़ि० जब दुनिया से रुखसत हो गए तो तावईन का ज़माना आया। ये वे लोग हैं जिन्होंने सहाबा रज़ि० से खुद हदीसें सुनी थीं, समझी थीं और खुद अपनी आंखों से उन नेक सहावा रज़ि० का दीदार किया था जिनकी ज़िंदगी हदीसे रसूल सल्ल० की सच्ची तसवीर थी।

वे लोग मुख्तलिफ मुल्कों और शहरों में फैले हुए थे, जगह -जगह उनके इल्म की शमा रौशन थीं और हदीसे रसूल सल्ल० के परवाने दूर दूर से सफ़र की सख़्तियां झेलते हुए उनके पास पहुंचते, उनके दीदार से आंखें ठंडी करते, प्यारे रसूल सल्ल० की प्यारी बातें सुनते और इसी रौशनी को घर घर पहुंचाने का अज़्म लेकर वापस लोटे। इन लोगों को तबेअ-तावईन रह० कहते हैं।

हदीस पढने का शौक

यूं तो हज़रत अब्दुल्लाह रह० तमाम ही उलूम में माने हुए थे, लेकिन इल्मे हदीस से उनको खास लगाव था हदीसें जानने याद करने और जमा करने का उनको इंतिहाई शौक़ था और इसी शौक़ की बरकत थी कि यह हदीस के इमाम कहलाए। हज, जिहाद और इबादत से जो वक़्त बचता उसको इल्मे हदीस हासिल करने में लगाते। कभी-कभी तो ऐसा होता कि घर से निकलते ही नहीं। एक बार किसी ने पूछा, आप अकेले घर में पड़े रहते हैं, तबीयत नहीं घबराती? इस सवाल पर उनको बहुत ताज्जुब हुआ। फ़रमाने लगे “ताज्जुब है घर में जब हर वक्त मुझे प्यारे रसूल सल्ल० और प्यारे सहाबा रजि० की सोहबत हासिल है तो घबराना कैसा?” कभी-कभी तो ऐसा होता कि रात में अगर हदीसे रसूल सल्ल० का ज़िक्र छिड़ जाता तो पूरी-पूरी रात जागने में कट जाती।

अली इब्ने हसन रह० उनके ज़माने के एक मशहूर आलिम हैं। एक दिन का किस्सा सुनाते हैं कि इशा की नमाज पढ़कर ये दोनों बुजुर्ग दरवाजे से निकल रहे थे। मस्जिद के दरवाज़े पर अली इब्ने हसन रह० ने किसी हदीस के बारे में पूछ लिया, फिर क्या था हज़रत अब्दुल्लाह रह० ने अपने इल्म के दरिया बहाने शुरू कर दिए। रात भर वही आलम रहा। जब मुअज्जिन ने सुबह की अज़ान दी तो उन्हें महसूस हुआ कि सुबह हो गई। मस्जिद के दरवाज़े पर खड़े-खड़े सारी रात गुज़ार दी।

हज़रत की जिंदगी मुजाहिदाना थी कभी हज में हैं तो कभी जिहाद के मैदान में, कभी मिस्र में हैं तो कभी हिजाज़ में, कभी बग़दाद में हैं तो कभी रिक़्क़ा में । गर्ज़ एक जगह जमकर कभी नहीं बैठे। लेकिन जहां पहुंचते यही शीन लिए हुए पहुंचते और हज़ारों इल्म के प्यासे इस रवा दवां चश्मे से सैराव होने के लिए जमा हो जाते। यही वजह है कि उनसे फ़ायदा उठानेवालों की तादाद इतनी ज़्यादा है कि शुमार में नहीं आ सकती ।

हदीस पढने वाला

  • हदीसे रसूल सल्ल० से मुहब्बत

वह शख्स मोमिन ही नहीं है जिसके दिल में ख़ुदा के रसूल सल्ल० की मुहब्बत न हो। आज हममें प्यारे रसूल सल्ल० ख़ुद तो मौजूद नहीं हैं, लेकिन आप सल्ल० की प्यारी ज़िंदगी की हू-ब-हू तसवीर हदीस में मौजूद है। आप सल्ल० का उठना-बैठना, चलना-फिरना, रहना सहना, नमाज़, रोज़ा, वाज़ और नसीहत सब ही कुछ हदीस में मौजूद है। आप सल्ल० से मुहब्बत करनेवाला भला कौन होगा जो हदीसे रसूल सल्ल० पढ़ने-पढ़ाने को अपनी सबसे बड़ी खुशकिस्मती न समझता हो और दिन रात उस आइने में अपने प्यारे रसूल सल्ल० की सूरत देखने का ख़्वाहिशमंद न हो।

हज़रत अब्दुल्लाह रह० का हाल तो यह था कि घर से निकलते ही न थे। हर वक़्त घर में तनहा बैठे हदीसे रसूल सल्ल० में मशगूल रहते। लोगों ने पूछा, हज़रत ! तनहा घर में बैठे बैठे आपकी तबीयत नहीं घबराती ? फ़रमाया “ख़ूब ! मैं तो हर वक़्त प्यारे रसूल सल्ल० और सहाबा रज़ि० की मज्लिस में होता हूं, उनके दीदार से आंखें ठंडी करता हूं और उनसे बातचीत में मशगूल होता हूं, फिर घबराना कैसा?” यही वजह है हदीस की मशहूर किताबों में आपकी बयान की हुई हदीसें इक्कीस हज़ार के लगभग हैं। और हदीस के उलमा उनको इल्मे हदीस में अमीरुल मोमिनीन और इमामुल मुस्लिमीन कहा करते थे।

हज़रत फ़ुज़ाला रह० फ़रमाते हैं, “जब कभी किसी हदीस के बारे में उलमा में इख़्तिलाफ़ होता तो कहते, चलो हदीस की नब्ज़ पहचानने वाले, ‘तबीबे हदीस’ से पूछें।” यह तबीबे हदीस हज़रत अब्दुल्लाह रह० ही थे । जिस तरह आपको हदीस से मुहब्बत थी, ऐसा ही आप हदीस का अदव भी करते थे। कभी अगर किसी की ज़बान से कोई बेअदबी की बात सुनते, या कोई बेअदबी करते देखते तो गुस्से से चेहरा सुर्ख़ हो जाता और बहुत खफ़ा होते। आम तौर पर ऐसा होता है कि रास्ता चलते लोग किसी आलिम को रोक कर मसला पूछने लगते हैं। आप उसको बहुत बुरा समझते थे। एक वार रास्ते में किसी ने हदीस के बारे में उनसे कुछ पूछा। गुस्से में चुप हो गए और यह कहते हुए आगे बढ़ गए कि “यह हदीसे रसूल सल्ल० पूछने की जगह नहीं है।” मतलब यह था कि हदीस गली-कूचों में पूछने की चीज़ नहीं है। “अगर तुम्हें हदीस जानने का शौक़ है तो किसी के पास जाकर अदब से पूछो।” सच्ची बात भी यह हैं कि जो शख़्स इल्म का अदब नहीं करता उसको कभी इल्म नहीं आ सकता। 

फ़क़ीह किसको कहते हैं

ताबईन और तबे तावईन ने कुरआन व हदीस को समझने में अपनी पूरी पूरी उम्र खपाईं, कुरआन व हदीस की बारीकियों को खूब खूब समझा। उनका गहरा इल्म हासिल किया और उनकी तह तक पहुंचने के लिए अपनी जिंदगियां गुजारी। लेकिन कुरआन व हदीस में यह तो है नहीं कि इंसान की ज़रूरत के सारे छोटे-बड़े मसले बयान कर दिए गए हों, उनमें तो मोटी-मोटी उसूली बातें बयान की गई हैं। इसलिए उन बुज़ुर्गों का एक कारनामा यह भी है कि उन्होंने ऐसा नया इल्म ईजाद किया और क़ुरआन व हदीस पर अमल करने की राह आसान की ।

हमारी ज़िंदगी की बेशुमार ज़रूरतें हैं, क़दम क़दम पर हमें यह मालूम करने की ज़रूरत पड़ती है कि ख़ुदा और रसूल का हुक्म क्या है? शरीअत का मसला क्या है? किस राह पर चलना इस्लाम के मुताबिक है और किस राह पर चलना इस्लाम के ख़िलाफ़ है? उन बुज़ुर्गों ने हमारी एक-एक ज़रूरत को सामने रखकर कुरआन व हदीस से शरीअत के मसले और अहकाम ‘समझने के उसूल बनाए और तफ्सील के साथ वह मसले और अस्काम किताबों में जमा किए। इसी इल्म का नाम “फ्रिकह” है। फ़क़ीह के मानी हैं “सूझ-बूझ” इस इल्म को फ़क़ीह इसलिए कहते हैं कि कुरआन व हदीस से जिंदगी के हर मामले के लिए हुक्म निकालना, और कुरआन व हदीस की मंशा को समझना बड़ा सूझ-बूझ का काम है इसके लिए दीन के गहरे इल्म और इतिहाई सूझबूझ की जरूरत है फ़क़ीह जाननेवालों और कुरआन व हदीस से अहकाम मालूम करनेवालों को फ़क़ीह कहते हैं ।

इन बुजुर्गों का हम पर बहुत बड़ा एहसान है। इन्हीं की मेहनत और कोशिश का नतीजा है कि हम जिंदगी के हर मामले में इतिहाई आसान और इत्मीनान के साथ दीन पर अमल कर सकते हैं ख़ुदा और रसूल सल्ल० की मर्ज़ी पर चल सकते हैं और दीन व दुनिया के लिहाज़ से एक कामयाब ज़िंदगी गुज़ार सकते हैं। रहती ज़िंदगी तक मुसलमान उनकी मेहनतों और कोशिशों से फ़ायदा उठाते रहेंगे, उनकी कद्र करेंगे, उनके एहसानमंद रहेंगे और उनके इस कारनामे पर फ़न करते रहेंगे।

  • मशहूर असातज्ञा

हज़रत के बाज़ उस्ताद बहुत मशहूर हैं, और सच्ची बात यह है कि उनके बनाने में उन मुलिस असातज्ञा की पाक नीयत, मेहनत और सोहबत को बड़ा दखल है। अपने तमाम असातज्ञा में उनको सबसे ज़्यादा मुहब्बत इमाम अबू हनीफ़ा रह० से थी। और हक़ीक़त यह है कि इमाम साहब से उन्होंने बहुत कुछ हासिल किया। फ़िक़ह इमाम साहब का ख़ास मज़मून था। हज़रत अब्दुल्लाह रह० ने इमाम साहब रह० की सोहबत में रहकर फ़क़ीह में बहुत कुछ महारत पैदा कर ली थी। इमाम मालिक रह० तो उनको “खुरासान का फकीह” कहा करते थे। उनके एक उस्ताद हजरत सुप्रियान सीरी रह० थे, उनकी सोहबत से भी हजरत ने बहुत कुछ फ़ायदा उठाया था खुद फ़रमाया करते थे :

“अगर इमाम अबू हनीफ़ा रह० और हज़रत सुफ़ियान सौरी रह० से फ़ायदा उठाने का मौक़ा अल्लाह तआला न बख़्शता तो सच्ची बात यह है कि मैं भी आम लोगों की तरह होता।”

फिर जब हज़रत इमाम अबू हनीफ़ा रह० का इंतिकाल हो गया तो वह मदीना मुनव्वरा पहुंचे और इमाम मालिक रह० की खिदमत में रहने लगे। इमाम मालिक रह० उनको बहुत मानते थे और वह भी इमाम मालिक रह० का बड़ा एहतिराम करते थे । उन लोगों के अलावा भी उनके बहुत से मशहूर उस्ताद हैं जिनसे उन्होंने फ़ैज़ हासिल किया।

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