2nd Ameer of Tabligh Jamaat, हज़रत मौलाना मुहम्मद यूसुफ रह० का दौर जिन लोगों ने देखा है वह अच्छी तरह जानते हैं कि Hazratji Maulana Yousuf….
आसमां तेरी लहद पर
शबनम अफ़शानी करे

परिचय
ये लाइनें लिखते वक़्त क़लम का जिगर फट उठता है कि आलमे इस्लाम की सबसे बड़ी तब्लीग़ी तहरीक के रहनुमा शेख़े वक़्त और आलिमे रब्बानी हज़रत मौलाना मुहम्मद यूसुफ़ साहब लगभग चौथाई सदी तक लगातार सफ़र, लगातार जद्दोजेहद, लगातार दावत और लगातार नक़ल व हरकत के बाद अब ख़ुदा के जवारे रहमत में आराम कर रहे हैं यानी रात बहुत थे जागे, सुबह हुई आराम किया।
मुन्शी अनीस अहमद मरहूम ने हज़रत जी (मौलाना मुहम्मद यूसुफ़ रह०) के आखिरी दौर की ऐसी बहुत सी अहम तक़रीरें जमा करके छापी थीं, साथ ही हज़रत के आखिरी वक्त के हालात, इंतिकाल के वक़्त की कैफियत, वफ़ात के बाद कई अहम हस्तियों के ताज़ियतनामे, अहम मज़ामीन्, ताज़ियती नज़्में, गरज बहुत सी अहम चीजें छापी थीं।
अब यही मज्मूआ हिन्दी ज़बान में बड़े एहतमाम से छापा गया है जो दावती काम से तअल्लुक रखने वाले लोगों के लिए नादिर तोहफा है।
Hazratji Maulana Yousuf कौन है?
हज़रत मौलाना मुहम्मद यूसुफ रह० का दौर जिन लोगों ने देखा है वह अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी तकरीरें दीनी तड़प और दावती बेकली और बेचैनी और तअल्लुक मअ-अल्लाह और यक़ीन व ऐतमाद अलल्लाह में डूबी हुई होती थीं जिनके पढ़ने से आज भी अल्लाह का यक़ीन व तवक्कुल और दीन की खातिर जान व माल की कुर्बानी देने का जज्बा दिल में पैदा हो जाता है।
अल्लाह के उस मक़बूल व बरगजीदा बन्दे ने अपने वालिद माजिद हज़रत मौलाना मुहम्मद इलयास रहमतुल्लाहि अलैहि की जिस अमानत को उनकी बीमारी के दौरान अपने सीने से लगाया था, उसको आख़िर दम तक इस वफ़ादारी से निभाया कि इश्क़ व मुहब्बत करने वालों, इस राह के फ़िदाकारों और वफ़ादारों और मुहब्बत का दम भरने वालों को भी इस पर रश्क आए, और बड़े-बड़े अज़ीमत वाले और मुहब्बत वाले इस हालत की तमन्ना और इस सआदत के हासिल करने की दुआ करें।
Hazratji Maulana Yousuf की जिंदगी
मौलाना की ज़िंदगी की सबसे बड़ी ख़ूबी और सबसे बड़ा कारनामा न तब्लीग़ी काम का फैलाव और उसका आम होना है और न मर्दुमसाज़ी और तर्बियत, उनकी ख़ास बात यह नहीं कि उन्होंने इस काम को हिन्दुस्तान से निकाल कर अरब देशों, और चीन, जापान और यूरोप व अमरीका तक पहुंचा दिया और चलत-फिरत और दौरों को इतना फैला दिया कि अगर उसका माली हिसाब लगाया जाए तो शायद करोड़ों तक पहुंचे। इस काम की वुसअत और तरक़्क़ी की अहमियत और उसके ज़बरदस्त नतीजों से कोई इंकार नहीं, लेकिन मौलाना की सबसे बड़ी ख़ूबी और उनका असल इम्तियाज़ दो चीज़ों में छिपा हुआ है और ये वे चीजें हैं जिनमें मुबल्लिग़ों और दावत व इस्लाह का काम करने वालों के हलके में उनका कोई शरीक व हमसर नजर नहीं आता और ऐसा मालूम होता है कि यह ‘बुलन्द रुत्वा’ इस अहद में उन्हीं के साथ मख़्सूस रहा-एक यक़ीन की ताक़त, दूसरे तब्लीग़ व दावत में मुकम्मल फ़नाइयत (फ़ना होना)
उनका असल मौजू (विषय) और उनकी आवाज़ यही ‘यक़ीन’ था और यह यक़ीन उनके रंग व रेशे में इस तरह घुस गया था कि उनकी जिंदगी का कोई लम्हा या कोई गोशा इससे खाली न था। ऐसा न था कि गोश-ए-तंहाई या इबादत व रियाज़त के वक्त तो यक्क़ीन उनको हासिल हो, लेकिन इक्तिदार की क्रूवत, वजाहत, दौलत, इल्म व फ़लसफ़ा के सामने यह यक्लीन उनका साथ छोड़ दे, अपने मुबल्लिग़ों और मुहब्बत करने वालों के सामने यह यक़ीन पूरी ताक़त के साथ सामने आए और वज़ीरों, हुकूमत वालों या दौलत वालों के सामने उसमें इतनी ताक़त बाक़ी रह जाए। यह यक़ीन उस वक़्त तक हासिल हो, जब तक उसको आज़माने का मौक़ा न आए और इम्तिहान व आज़माइश के वक़्त वे-यार व मददगार छोड़ दे।
Hazratji Maulana Yousuf की दावत
मौलाना ने एक बार दावत की शरर्तों और आदाब पर तकरीर करते हुए फ़रमाया कि जब दो आदमी मिलते हैं तो ऐसा कभी नहीं होता कि कोई किसी से मुतास्सिर न हो या आदमी मुतास्सिर करता है या मुतास्सिर होता है, दर्मियान में कोई दर्जा नहीं है, इसलिए अगर तुम मुख़ातब को मुतास्सिर नहीं कर सके तो यह समझो कि तुम ग़ैर-इरादी तौर पर ख़ुद इससे मुतास्सिर हो चुके हो।
यह बात सबसे पहले ख़ुद मौलाना रहमतुल्लाहि अलैहि पर सादिक़ आती है। वह बड़ी से बड़ी शख्सियत के सामने उसी क्रूवत, उसी यक्क़ीन, उसी सराहत, उसी दिलसोजी और उसी सतह से बात करते, जो कारे नुबूबत के शायाने शान और मंसबे उलेमा के लायक़ और मुनासिब हो यह जिस तरह एक आमी से बात करते थे, उसी तरह एक वजीर या सफ़ीर या एक करोड़पति और बड़े से बड़े सियासी से बात करते थे, बल्कि शायद इससे ज़्यादा सराहत और क़ूवत के साथ, पाकिस्तान में एक बार कुछ मुख़्लिस और अहले ताल्लुक़ ने जो हुकूमत के ऊंचे ओहदों पर थे, एक मख़्सूस इज्तिमाअ किया और उसमें हुकूमत के वज़ीरों के आला ओहदेदार और मशहूर शख़्सियतों को दावत दी। मौलाना तशरीफ़ लाए तो इन सबका तआरुफ़ कराया गया कि आप फ़्लां वज़ीर हैं, आप उस महकमे के सिक्रेट्री हैं, आप फ्लां जगह के डायरेक्टर हैं। जब तआरुफ़ का सिलसिला ख़त्म हुआ तो मौलाना ने बात इस तरह शुरू फ़रमाई –
“भाइयो! अभी आपने मालूम नहीं किन-किन ओहदेदारों का तआरुफ़ कराया, इसके बाद आपने कुछ जानवरों का नाम लेकर फ़रमाया और कहा हां, अगर आप यों तआरुफ़ कराते तो शायद मैं ज़्यादा समझ जाता।’
जिन हज़रात ने इन लोगों को दावत दी थी, उनके सर मारे शर्म और डर के झुके हुए थे कि इस बात का क्या असर होता है। आगे मौलाना ने अजीव असरदार और दिलनशीं अन्दाज़ में फ़रमाना शुरू किया कि
‘मेरे भाइयो! वज़ीर तो मुस्लिम भी होता है और ग़ैर-मुस्लिम भी, डॉक्टर मुस्लिम भी होता है और ग़ैर-मुस्लिम भी, इसी तरह तमाम ओहदों का हाल है। इसमें हमारी और आपकी कोई ख़ुसूसियत नहीं। हमारे बुजुर्गों का जब भी तआरुफ़ कराया जाता था, तो यह नहीं कहा जाता था कि इतनी मिलों का मालिक है, इतनी कोठियों का मालिक है और इतनी मोटरों का मालिक है, बल्कि यों तआरुफ़ होता था कि ये बद्री हैं, इन्होंने उहुद में हिस्सा लिया था, इन्होंने फ्लां ग़ज़वा में हिस्सा लिया था और ये इतनी लड़ाइयों में शरीक हुए थे और इन्होंने दीन के लिए ये कुर्बानियां दीं ।’
इसी दर्द भरे या मुख़िलसाना अन्दाज़ में लगभग साढ़े तीन घंटे तक़रीर की । जिन लोगों ने यह जलसा बुलाया था, वे इन्तिज़ार में थे कि देखें, मौलाना की इस तक़रीर का क्या रद्देअमल होता है और ये लोग ग़ैज़ व ग़ज़ब की हालत में वापस जाते हैं या नहीं, लेकिन इसका रद्देअमल सिर्फ़ यह हुआ कि शाम के उमूमी इज्तिमाअ में न सिर्फ़ ख़ुद वे लोग मौजूद थे, बल्कि अपने साथ दूसरे ओहदेदारों को भी लाए थे और स्टेज पर वज़ीरों की तायदाद इससे कहीं ज़्यादा थी, जो उस ख़ास इज्तिमाअ में थी।
Hazratji Maulana Yousuf का Allah पर याकीन
यह यक़ीन मौलाना के सीने से चश्मे की तरह उबलता और किसी वक़्त, किसी दिन या किसी हफ़्ते का जिक्र नहीं, उसका सोता न सूखता और ऐसा मालूम होता कि वह यह सब कुछ आंखों से देखकर कह रहे हैं कि यह उनका ऐसा हाल और वाक्रिया है जिसके लिए किसी बनावट और तकल्लुफ़ की ज़रूरत नहीं।
“यह यक़ीन उनके पास बैठने वालों या उनकी तक़रीर सुनने वालों को इस तरह मुतास्सिर करता कि कभी उनके मज़्मूनों और उनकी तक़रीरों को पूरी तरह न समझते और ज़ौक़ और तर्जे बयान के इख़्तिलाफ़ के बावजूद वह उस गर्मी और हरारत को अपने सीने में मुंतक़िल होते हुए महसूस करते थे या क से कम इतना जरूर समझ लेते थे कि इस आदमी को यक़ीन की जो दौलत हासिल है, वह कम लोगों के पास है। निजी बात-चीत हो या उमूमी, एक लाख का मज्मा हो या एक सौ का, मौलाना हमेशा एक जैसे तर्ज़ और एक जैसी ताक़त के साथ बात करते थे और एक लम्हे के लिए अपने मौजू से न हटते थे। वे बातें, जो इस माद्दापरस्ती के दौर में नामानूस हैं और जिनसे अच्छे-अच्छे उलेमा और दीनी रहनुमा मस्लहत के ख्याल से या ज़माने के रुझान से मजबूर होकर या इंसान की माद्दी तरक़्क़ी से मस्हूर होकर परहेज़ करने लगे हैं और चाहते हैं कि उनका ज़िक्र उनकी तहरीरों और तक़रीरों में कम से कम आए और ज़्यादा ज़ोर मुसलमानों के सियासी व मआशी मसाइल और इस्लाम के जम्हूरी तमद्दुनी मसअलों पर दिया जाए और उसको सिर्फ़ एक सियासी तहरीक, एक मआशरती निज़ाम, एक इक्तिसादी तंज़ीम और एक तमद्दुनी इर्तिका के तौर पर पेश किया जाए, वे बातें मौलाना बिला किसी झिझक के और बग़ैर किसी माज़रत के अपनी पूरी ताक़त के साथ पेश करते थे, बल्कि यही उनकी हर बातचीत और तक़रीर का मह्वर होता, आख़िरत पर यक्क़ीन, ख़ुदा के वायदे पर एतमाद, तवक्कुल, जन्नत का तकिरा जहन्नम वालों के वाक़िआत, ग़ैबी हक़ीक़तें और इंसान की रूह की अहमियत, माद्दियत का इंकार, दुनिया और आख़िरत का मुक़ाबला और रसूलुल्लाह और सहाबा किराम की ज़िंदगी और उनकी मिसालें और नमूने, दावत की ताक़त और उसकी तासीर व तस्ख़ीर, यक्क़ीन की अहमियत और उनकी अक़्ल को हैरत में डाल देने वाले वाक़िआत, ये चीजें थीं, जिन पर मौलाना की तक़रीर मुश्तमिल होती थी, लेकिन इस अक्लपरस्त बल्कि हवसपरस्त अहद में और इस बदले हुए जौक़ व रुजहान के बावजूद उनकी ये बातें हर तबके और हर हल्के को किसी न किसी पहलू से ज़रूर मुतास्सिर करती थीं और इसका सबसे बड़ा राज़ मौलाना की क़ल्बी क्रूवत और यक़ीन की ताक़त थी जो उनके लफ़्ज़ लफ़्ज़ से जाहिर होती थी और अक़्ल के परस्तारों और नफ़्स के गिरफ़्तारों को मुतास्सिर किए बिना न रहती थी ।
इसके साथ बातचीत के दौरान और तक़रीर के दौरान ऐसे मआनी का वरूद होता जिसको आउर्द और तकल्लुफ़ या नुक्ता आफ़रीनी से कोई ताल्लुक़ न था, बल्कि साफ़ मालूम होता था कि कोई और ताक़त उनसे ये मज़ामीन और हक़ाइक़ और मआरिफ़ करवा रही है, वे सिर्फ़ इसके नक़ल करने वाले हैं।
मौलाना को इस बात का पूरा यकीन था कि ‘ईमान व यक़ीन’ के बग़ैर उम्मते मुहम्मदी में कोई तब्दीली और इन्क़िलाब पैदा नहीं हो सकता और अगर इसके बग़ैर कोशिश की गई तो वह इस्लाम की रूह और इस उम्मत के मिज़ाज और इसकी तारीख़ व तजुर्बे के ख़िलाफ़ होगी, जिसका मुत्तफ़क़ा फ़ैसला यह है कि ईमान ही के सहारे यह उम्मत आगे बढ़ी और समुद्र व ख़ुश्की पर छा गई और ईमान ही के कमज़ोर होने और ख़ुदा से रिश्ता टूटने के बाद उसका शीराजा बिखर गया और उसको अपनी पनाहगाहों में वापस जाना पड़ा-
- ख़ास है तर्कीब में क़ौमे रसूले हाशिमी
Hazratji Maulana Yousuf की फ़िक्र
मौलाना की दूसरी अहम खुसूसियत दावत में मुकम्मल तौर पर लगा रहना, बल्कि पूरी तरह उसी में फ़ना हो जाना है। यह असल में उसी पहली ख़ुसूसियत का साया और अक्स है। इस यक़ीन ने मौलाना को इस दर्जा बेचैन, मुज्तरिब और तड़पने वाला बना दिया था कि उनको किसी पहलू क़रार न आता था और इस यक़ीन की इशाअत और तब्लीग़ व दावत उनके लिए उतनी ही ज़रूरी हो गई थी जैसे इंसान के लिए भोजन और हवा, उनकी पूरी जिंदगी इसी दावत से इबारत थी और वे इसी के सहारे जी रहे थे। रात के एक मुख़्तसर वक्फ़े और मुख़्तसर फ़ैलूला के सिवा उनका सारा वक़्त इसी फ़िक्र और इसी तड़प में गुज़रता था। जमाअतों की तश्कील, चफ़्दों से मुलाक़ात, उनकी रुख्सती की दुआ, दावत की हक़ीक़त और उसकी शर्ते, आदाब और ईमान व यक़ीन पर मुसलसल तक़रीरें, दर्से हदीस और मुसलसल वातचीत और मश्वरे यह उनके रात व दिन का मामूल था। देर रात तक यह सिलसिला जारी रहता। जहां कुछ नये लोग आ जाते, बस बहार आ जाती। मौलाना चाहते थे कि अपने सीने की सारी ताक़त और अपने दिल का सारा दर्द खींच कर उनके सामने रख दें। काम की नवईयत की वजह से आने वालों का सिलसिला बराबर जारी रहता, इसलिए मौलाना की बातचीत बराबर जारी रहती । तकरीरों के बाद मौलाना बड़े एहतमाम और बड़े दर्द व सोज़ से लम्बी दुआ करते और सुनने वालों की आंखें नम और दिल गर्म हो जाते। कुछ शिद्दते असर या फ़र्ते नदामत से बेसाख़्ता रो पड़ते और आंखों को गुस्ले सेहत देते । ये दुआएं अपनी तासीर व क्रूवत के लिहाज़ से और मांगने वाले के ख़ुलूस व यक़ीन, दिल शिकस्तगी और शाने बन्दगी और बेकसी व वेचारगी के साथ नाज़ व एतमाद की वजह से तक़रीरों से किसी तरह कम न थीं और बहुत से लोग जो कभी-कभी मश्शूलियत की वजह से इन तक़रीरों से महरूम हो जाते, इस दुआ को ग़नीमत और तक़रीर का हासिल और अपने आने का सबसे बड़ा फ़ायदा समझते ।
Hazratji Maulana Yousuf की Tabligh
मौलाना उन जलसों को बिल्कुल ला- हासिल समझते थे, जिनके बाद अमल का कोई क़दम आगे न बढ़े। तब्लीग़ के जलसों में भी जहां उन्हें बुलाया जाता, वे पहले से वायदा ले लेते कि तुम्हें इतने आदमी देने होंगे, या इतनी जमाअतें निकालनी होंगी। दिन व रात के इन मामूलात के अलावा सफ़रों और दौरों की मुसलसल ज़ंजीर थी, जो ख़त्म होने को न आती थी बल्कि हक़ीक़त तो यह है कि तब्लीग़ी जमाअत इन्हीं सफ़रों की बदौलत क़ायम है और उसकी जिंदगी और ताक़त का राज़ इसी में छिपा हुआ है। इसलिए अन्दाज़ा किया जा सकता है कि मौलाना के दौरों का क्या हाल होगा। जहां मौलाना तशरीफ़ ले जाते, वहां पहले से बहुत एहतमाम किया जाता और हज़ारों-लाखों लोग ज़ौक़ व शौक़ से जलसों में शरीक होते और मौलाना की लम्बी तक़रीरें सुनते, सैंकड़ों जमाअतें बाहर निकलतीं और हिन्दुस्तान के अलावा दूसरे मुल्कों में भी जातीं।
मौलाना अगर किसी काम के आदमी को देख लेते और उसकी कोई सलाहियत उनके इल्म में आती, तो वे बेचैन हो जाते कि किस तरह उसको ” तब्लीग़ की तरफ़ मुतवज्जह कर लें। अच्छी अंग्रेज़ी जानता होता तो चाहते कि किसी तरह वह तब्लीग़ में लग जाए और उसको यूरोप के किसी मुल्क या अमरीका भेज दें। अच्छी अरबी जानता होता तो चाहते अरब मुल्कों में तब्लीग़ के लिए भेज दें। इसी तरह इंतिज़ामी सलाहियत और अक़्ल व फ़िरासत जिसमें जो भी खूबी होती, मौलाना देखकर बेचैन हो जाते कि यह दीन के काम क्यों नहीं आ रही है।
Hazratji Maulana Yousuf Allahके रास्ते की मोहब्बत
मौलाना की सबसे बड़ी ख़ुसूसियत और उनकी अज़्मत का राज़ यह है कि उनको देखकर यह मालूम होता है कि अल्लाह व रसूल पर दिल व जान से कुर्बान होना किसको कहते हैं उसके रास्ते में अपने को मिटाने और मिटा मिटा कर ख़ुश होने में क्या लज्ज़त है, वह क्या बात है जो जब किसी को हासिल होती है, उसको बदल कर रख देती है, फिर उस राह का गर्द व गुबार उसको नसीमे सेहरी से ज़्यादा अजीज होता है। रास्ते के कांटे महकते हुए फूल बन जाते और लज्ज़त के थपेड़े अपने साथ ‘बू-ए-दोस्त’ लाते हैं। फिर आदमी सब कुछ भूल जाता है और उसको सिर्फ़ एक बात याद रहती है और उसमें वह इस तरह मस्त और सरशार रहता है कि फिर कोई फ़ानी लज़्ज़त, आरजी दौलत और वक़्ती फ़ायदा उसको अपनी तरफ़ मुतवज्जह नहीं कर सकता।
किसी तरह उसकी फिक्के एक फिक में सिमट कर रह जाती हैं और निगाहें हर तरफ़ से हट कर एक ‘रूखे जेवा’ पर जम जाती हैं। किस तरह उसका सीना हसद से अदावत, तकम्बुर से, अनानियत से खुदगरजी से और तमाम गन्दी बातों से पाक व साफ़ हो जाता है और उसको किसी और तरफ़ रुख करने की फुर्सत ही बाकी नहीं रहती। किसी तरह वह अपने वजूद, अपने जिस्म, अपने वक्त अपने माल और अपने बाल-बच्चे सबके साथ परवाने की बेताबी लिए हुए और बिना किसी मलामत की परवाह किए हुए अपने महबूद व मत्लूब पर निसार हो जाता है।
अंत
अल्लाह के इस बन्दे पर मरज़ पर हमला भी इस हालत में हुआ कि वह तक़रीर कर रहे था और इंतिक़ाल के बाद यह शान थी कि जनाज़ा तैयार है और जमाअतों की तश्कील भी हो रही है और हिदायतें भी दी जा रही हैं, फ़िज़ा ग़म से बोझल है, लेकिन दीन के क़ाफ़िले अज़्म भरे क़दमों के साथ अपने रास्ते पर रवां-दवां हैं और वह काम जिसके रास्ते में उसने जान दे दी, उसी कूक्त, लेकिन सुकून और खामोशी के साथ जारी है। मुहब्बत के दावेदारों और उस ‘जिन्से नायाय’ के रीदारों के लिए मीलाना की जिंदगी एक ऐसा आईना है जिसमें वे इश्क़ की बोलती हुई तस्वीर देख सकते हैं और अपने ‘सफ़रे जुनूं’ के लिए सामाने निशान फ़राहम कर सकते हैं-
परवाने का हाल इस महिफ़ल में, है क़ाविले रश्क ऐ अहले नजर !
एक रात में यह पैदा भी हुआ, आशिक़ भी हुआ और मर भी गया ।
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आज वह आबे हयाते जाविदानी छुप गया| कविता
आसमाने रुश्द व हिक्मत का दरख़्शां आफ़ताब,
दौरे हाज़िर का वह यूसुफ़ बेमिसाल व लाजवाब,
या दहाने तश्नगाने दीन की खातिर जो आब
आज वह आबे हयाते जाविदानी छुप गया।
गुतस्ताने दीन व मिल्लत का गुलाबे खुश्तरी
महिफ़ले उश्शाक़ दीं का उश्वा परवर नाज़नीं,
मुस्लिहे अहले जहां व वाइज़े दीने मुबीं
गोया खिजे राह था व खिजे सानी छुप गया।
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