जबसे होंटों पे या रब तेरा नाम है, तेरे बीमार को काफ़ी आराम है। हां क़दम का उठाना मेरा काम है,
पार बेड़ा लगाना तेरा काम है। जैसी नीयत वैसा अल्लाह का मामला Pen वापस देना भुल गए | Khuda का ख़ौफ़ – Dawat~e~Tabligh in Hindi..

Allah तेरी रहमत तो हर एक पर आम है
जबसे होंटों पे या रब तेरा नाम है,
तेरे बीमार को काफ़ी आराम है।
तूने बख़्शा हमे नूरे इस्लाम है,
हमपे तेरा हक़ीक़ी यह इनआम है।
जिसको तेरी ख़ुदाई से इंकार है,
बादशाहत में रहकर भी नाकाम है।
रूठता है ज़माना अगर रूठ जाए,
राज़ी करना तुझे बस मेरा काम है।
आसमानों की दुनिया में है मुहतरम,
तेरी ख़ातिर जो दुनिया में बदनाम है।
अपने मुंकर को भी रिज़्क़ देता है,
तेरी रहमत तो हर एक पर आम है।
हां क़दम का उठाना मेरा काम है,
पार बेड़ा लगाना तेरा काम है।
Allah तेरी रहमत तो हर एक पर आम है Kavita – Web Stories
जैसी नीयत वैसा अल्लाह का मामला
(यह क़िस्सा बुखारी शरीफ़ में सात जगह आया है ।)
मुस्नद में है कि हुजूर सल्ल० ने फरमाया कि बनी इसराईल के एक शख्स ने दूसरे शख़्स से एक हज़ार दीनार उधार मांगा। उसने कहा, गवाह लाओ। जवाब दिया कि ख़ुदा तआला की गवाही काफ़ी है। कहा, ज़मानत लाओ। जवाब दिया कि ख़ुदा तआला की ज़मानत काफ़ी है। कहा, तूने सच कहा। अदाएगी की मीआद मुक़र्रर हो गई और उसने उसे एक हज़ार दीनार गिन दिए । उसने तरी का सफ़र किया और अपने काम से फ़ारिग हुआ। जब मीआद पूरी होने को आई तो यह समुन्द्र के क़रीब आया कि कोई जहाज या कश्ती मिले तो उसमें बैठकर जाऊं और रकम अदा कर आऊं; लेकिन कोई जहाज़ न मिला। जब देखा कि वक़्त पर नहीं पहुंच सकता तो उसने एक लकड़ी ली और बीच में से खोखली कर ली और उसमें एक हज़ार दीनार रख दिए और एक पर्चा भी रख दिया। फिर मुंह बन्द कर दिया और ख़ुदा तआला से दुआ की
“ऐ परवरदिगार! तुझे खूब इल्म है कि मैंने फलां शख्स से एक हज़ार दीनार क़र्ज़ लिए, उसने मुझसे ज़मानत तलब की मैंने तुझे जामिन बना दिया और उस पर वह ख़ुश हो गया। गवाह मांगा तो मैंने गवाह भी तुझ ही को रखा। वह इस पर भी ख़ुश हो गया। अब जबकि वक्त मुकर्ररा ख़त्म होने को आया तो मैंने हर चन्द कश्ती तलाश की कि जाऊं और अपना कर्ज अदा कर आऊं लेकिन कोई कश्ती नहीं मिली। अब में इस रकम को तुझे सौंपता हूं और समुन्द्र में डालता हूँ और दुआ करता हूं कि यह रक्कम उसे पहुंचा दे।”
फिर उस लकड़ी को समुन्द्र में डाल दिया और खुद चला गया। लेकिन फिर भी कश्ती की तलाश में रहा कि मिल जाए तो जाऊं। यहां तो यह हुआ, यहां जिस शख्स ने उसे कर्ज दिया जब उसने देखा कि बहुत पूरा हुआ और आज उसे आ जाना चाहिए तो वह भी दरिया के किनारे आ खड़ा हुआ कि वह आएगा और मेरी रक्कम मुझे देगा या किसी के हाथ भिजवाएगा। मगर जब शाम होने को आई और कोई कश्ती उस तरफ़ नहीं आई तो वह वापस लौटा। किनारे पर एक लकड़ी देखी तो वह यह समझ कर कि खाली तो जा ही रहा हूं, आओ इस लकड़ी को ले चलूं, फाड़कर सुखा लूंगा, जलाने के काम आएगी। घर पहुंचकर जब उसे चीरा तो खनाखन बजती हुई अशरफ़ियां निकलती हैं। गिनता है तो पूरी एक हजार हैं। वहीं पर्चे पर नज़र पड़ती है, उसे भी उठाकर पढ़ता है।
फिर एक दिन वही शख़्स आता है और एक हज़ार दीनार पेश करके कहता है कि यह लीजिए आपकी रकम माफ़ कीजिएगा मैंने हर चन्द कोशिश की कि वादा खिलाफ़ी न हो लेकिन कश्ती के न मिलने की वजह से मजबूर हो गया और देर लग गई। आज कश्ती मिली आपकी रक्रम लेकर हाज़िर हुआ उसने पूछा कि क्या मेरी रक्कम आपने भिजवाई भी है? उसने कहा, मैं तो कह चुका कि मुझे कश्ती न मिली। उसने कहा अपनी रकम वापस लेकर ख़ुश होकर चले जाओ अपने जो रकम लकड़ी में डालकर उसे तवक्कुल इलल्लाह दरिया में डाला था उसे ख़ुदा तआला ने मुझ तक पहुंचा दिया और मैंने अपनी पूरी रक्कम वसूल कर ली इस हदीस की सनद बिल्कुल सही है।
(तफ़्सीर इब्ने कसीर, जिल्द 1, पेज 377)
ख़ुदा का ख़ौफ़
ख़ुदा का ख़ौफ़ तमाम भलाइयों की जड़ है। उस आदमी से भलाई की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती जिसमें ख़ुदा का ख़ौफ़ न हो। बुरी बातों से रुकना, अच्छे कामों की तरफ़ बढ़ना, लोगों के हुकूक़ का ख्याल, ज़िम्मेदारी का एहसास, ग़रीबों के साथ सुलूक, लेन-देन और मामलात में सच्चाई और दयानत, गर्ज़ हर नेकी की जड़ ख़ुदा का ख़ौफ़ है।
क़ियामत के दिन ख़ुदा के सामने पेशी होगी। वह हमसे पल-पल का हिसाब लेगा। एक-एक काम की पूछ गच्छ होगी। यह यक़ीन नेकी की ज़मानत है, यह यक़ीन रखनेवाला शख़्स कभी किसी को धोखा न देगा, किसी बुराई के क़रीब न फटकेगा, किसी गैर-जिम्मेदारी की हरकत न करेगा। कभी किसी का हक़ न मारेगा, कभी किसी का दिल न दुखाएगा। हर आदमी को उससे भलाई की उम्मीद होगी और हर हाल में वह सच्चाई पर कायम रहेगा। ख़ुदा से डरनेवाला बड़े-से-बड़े ख़तरे से नहीं डर सकता। उस शख़्स के दिल में ईमान ही नहीं है जो ख़ुदा से नहीं डरता।
मदीना के मशहूर आलिम हज़रत क़ासिम इब्ने अहमद रह० अक्सर सफ़र में हज़रत अब्दुल्लाह रह० के साथ रहते थे। एक बार फ़रमाने लगे, “मैं कभी-कभी यह सोचता था कि आख़िर हज़रत अब्दुल्लाह रह० में वह कौन-सी खूबी है जिसकी वजह से उनकी इतनी कद्र है और हर जगह पूछ है नमाज़ वह भी पढ़ते हैं, हम भी पढ़ते हैं, रोज़ा वह रखते हैं, हम भी रखते हैं, वह हज को जाते हैं तो हम भी जाते हैं, वह ख़ुदा की राह में जिहाद करते हैं तो हम भी जिहाद में शरीक होते हैं। किसी बात में हम उनसे पीछे नहीं हैं, लेकिन फिर भी जहां देखिए लोगों की जबान पर उन्हीं का नाम है और उन्हीं की कद्ध है।
एक मर्तबा ऐसा हुआ कि हम लोग शाम के सफ़र पर जा रहे थे। रास्ते में रात हो गई, एक जगह ठहर गए। खाने के लिए जब सब लोग दस्तरख़ान पर बैठे तो इत्तिफ़ाक़ की बात कि यकायक चिराग बुझ गया। ख़ैर एक आदमी उठा और उसने चिराग जलाया। जब चिराग की रौशनी हुई तो क्या देखता हूं कि हजरत अब्दुल्लाह रह० की दादी आंसुओं से तर हैं चिराग बुझने से घबराए तो हम सब ही थे, लेकिन हज़रत अब्दुल्लाह रह० तो किसी और ही दुनिया में पहुंच गए, उन्हें कबर की अंधेरियां याद आ गई और उनका दिल भर आया। मुझे यकीन हो गया कि यह ख़ुदा का ख़ौफ़ और उसके सामने हाज़िरी का डर है जिसने हज़रत को इस ऊंचे मक़ाम पर पहुंचा दिया है, और यह हक़ीक़त है कि इस बात में हम उनसे पीछे हैं।
हज़रत इमाम अहमद बिन हंबल रह० फ़रमाया करते थे कि “हज़रत अब्दुल्लाह रह० को यह ऊंचा मर्तबा इसी लिए मिला कि वह ख़ुदा से बहुत ज़्यादा डरते थे।”
Pen वापस देना भुल गए
ज़िम्मेदारी का एहसास इतना था कि एक मर्तबा शाम में किसी से लिखने के लिए क़लम ले लिया और देना याद नहीं रहा। जब अपने वतन मर्व वापस आ गए तो याद आया। घबरा गए। फ़ौरन सफ़र का इरादा किया। शाम मर्व से सैकड़ों मील दूर है सफ़र की तकलीफें उठाते हुए शाम पहुंचे और जब उस शख़्स को क़लम दिया तो इत्मीनान का सांस लिया। फ़रमाया करते थे, “अगर शुबहा में तुम्हारे पास किसी का एक दिरहम रह जाए तो उसका वापस करना लाख रुपये सदक़ा करने से ज़्यादा अच्छा है।” उन्हीं का एक शेर है जिसका मानी हैं।
“जो ख़ुदा से डरता है वह किसी बुराई के क़रीब नहीं फटकता।”
दुनिया से बेरगबती और जुहूद पर आपने एक किताब भी लिखी है जिसका नाम “किताबुज्जुहूद” है। जब शागिर्दों को यह किताब पढ़ाते तो उनका दिल भर आता, आंखों में आंसू आ जाते और आवाज़ घुटने लगती।
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