अब्दुर्रज़्ज़ाक़ नामी आदमी को रज्जाक़ कहकर पुकारना गुनाह है। …..के लिए इस्तेमाल करना इल्हादे-मज़कूर में दाख़िल और नाजाइज़ व हराम है। लोगों ko बुलाने का Tarika | Baccho का कैसे rakhe Islamic naam ? -Dawat-e-Tabligh

लोगों ko बुलाने का Tarika
- अब्दुर्रज़्ज़ाक़ नामी आदमी को रज्जाक़ कहकर पुकारना गुनाह है
तर्जमाः “और छोड़ दो उनको जो कज-राह चलते हैं उसके नामों में, उन लोगों को उनके किए की ज़रुर सजा मिलेगी।”
(सूरह आराफ़ 180 )
अस्मा-ए- इलाहिय्या में तहरीफ़ या कज-रवी की कई सूरतें हो सकती हैं। वह सब इस आयत के मज़्मून में दाख़िल हैं। अव्वल यह कि अल्लाह तआला के लिए वह नाम इस्तेमाल किया जाये जो क़ुरआन व हदीस में अल्लाह तआला के लिए साबित नहीं, उलमा-ए-हक़ का इत्तिफ़ाक़ है कि अल्लाह तआला के नाम और सिफ़ात में किसी को यह इख़्तियार नहीं कि जो चाहे नाम रख दे या जिस सिफ़त के साथ चाहे उसकी हम्द व सना करे बल्कि सिर्फ वही अल्फ़ाज़ होना ज़रूरी हैं जो कुरआन व सुन्नत में अल्लाह तआला के लिए बतौर नाम या सिफ़त के ज़िक्र किए गए हैं जैसे अल्लाह तआला को करीम कह सकते हैं, सखी नहीं कह सकते, नूर कह सकते हैं अब्यज़ नहीं कह सकते, शाफ़ी कह सकते हैं, तबीब नहीं कह सकते, क्योंकि यह दूसरे अल्फ़ाज़ मन्कूल नहीं, अगरचे इन ही अल्फ़ाज़ के हम मानी हैं।
दूसरी सूरत इल्हाद फ़िल् अस्मा की यह है कि अल्लाह के जो नाम क़ुरआन व सुन्नत से साबित हैं उनमें से किसी नाम को ना मुनासिब समझकर छोड़ दे, उसका बे-अदबी होना ज़ाहिर है ।
तीसरी सूरत यह है कि अल्लाह तआला के मख़्सूस नामों को किसी दूसरे शख़्स के लिए इस्तेमाल करे, मगर इसमें यह तफ्सील है कि अस्मा-ए-हुस्ना में से कुछ नाम ऐसे भी हैं जिनको खुद कुरआन व हदीस में दूसरे लोगों के लिए भी इस्तेमाल किया गया है और कुछ वह हैं जिनको सिवाए अल्लाह तआला के और किसी के लिए इस्तेमाल करना क़ुरआन व हदीस से साबित नहीं। तो जिन नामों का इस्तेमाल गुरुल्लाह के लिए कुरआन व हदीस से साबित है, वह नाम तो औरों के लिए भी इस्तेमाल हो सकते हैं। जैसे रहीम, रशीद, अली, करीम, अज़ीज़ वग़ैरा और अस्मा-ए-हुस्ना में से वह नाम जिनका ग़ैरुल्लाह के लिए इस्तेमाल करना कुरआन व हदीस से साबित नहीं वह सिर्फ़ अल्लाह तआला के लिए मख़्सूस हैं उनको गैरुललाह के लिए इस्तेमाल करना इल्हादे-मज़कूर में दाख़िल और नाजाइज़ व हराम है।
जैसे रहमान, सुव्हान, रज्जाक़, ख़ालिक़, गफ्फार, कुद्दूस वगैरा। फिर इन मख़्सूस नामों को गैरुल्लाह के लिए इस्तमाल करना अगर किसी ग़लत अक़ीदे की बिना पर है कि उसको ही ख़ालिक़ या रज़्ज़ाक़ समझकर इन अल्फ़ाज़ से ख़िताब कर रहा है तब तो ऐसा कहना कुफ्र है और अगर अक़ीदा ग़लत नहीं, सिर्फ़ बेफ़िक्री या बे-समझी से किसी शख़्स को ख़ालिक़, रज़्ज़ाक़, या रहमान, सुब्हान कह दिया तो यह अगरचे कुफ्र नहीं मगर मुश्किाना अल्फ़ाज़ होने की वजह से गुनाहे-शदीद है, अफ्सोस हैं कि आज कल आम मुसलमान इस गलती में मुब्तला हैं, कुछ लोग तो वे हैं जिन्होंने इस्लामी नाम ही रखना छोड़ दिए, उनकी सूरत व सीरत से तो पहले भी मुसलमान समझना उनका मुश्किल था, नाम से पता चल जाता था, अब नये नाम अंग्रेज़ी तर्ज़ के रखे जाने लगे, लड़कियों के नाम ख़्वातीने इस्लाम के तर्ज के ख़िलाफ़ ख़दीजा, आईशा, फ़ातिमा के बजाये, नसीम, शमीम, शहनाज़, नजमा, परवीन होने लगे।
इससे ज़्यादा अफ्सोसनाक यह है कि जिन लोगों के इस्लामी नाम हैं अब्दुर्रहमान, अब्दुल ख़ालिक़, अब्दुर्रज़्ज़ाक़, अब्दुल कुद्दूस वगैरह उनमें तख्कीफ़ का यह ग़लत तरीक़ा इख़्तियार कर लिया गया कि सिर्फ़ आख़िरी लफ्ज़ उनके नाम की जगह पुकारा जाता है, रहमान, ख़ालिक़, रज्ज़ाक़, गफ़्फ़ार का ख़िताब इंसानों को दिया जा रहा है और इससे ज़्यादा ग़ज़ब की बात यह है कि कुदरतुल्लाह को अल्लाह साहब और क़ुदरते-ख़ुदा को ख़ुदा साहब के नाम से पुकारा जाता है यह सब नाजायज़ व हराम और बड़े गुनाह हैं। जितनी मर्तबा यह लफ़्ज़ पुकारा जाता है, उतनी ही बड़े गुनाह का मुजरिम होता है और सुनने वाला भी गुनाह से ख़ाली नहीं रहता, यह गुनाह बे-लज़्ज़त और बे-फ़ायदा ऐसा है जिसको हमारे हज़ारों भाई अपने रात-दिन का मश्गुला बनाए हुए हैं और कोई फ़िक्र नहीं करते कि इस ज़रा सी हरकत का अंजाम कितना खतरनाक है। जिसकी तरफ़ आयते मज्कुरा के आखिरी जुमले में तंबीह फ़रमाई गई है। यानी उनको अपने किए का बदला दिया जाएगा, इस बदले की तायीन नहीं की गई, उस इव्हाम से शदीद गुनाह की तरफ़ इशारा है।
जिन गुनाहों में कोई दुनयवी फ़ायदा या लज़्ज़त व राहत है उनको तो कोई कहने वाला यह भी कह सकता है कि मैं अपने ख़्वाहिश या ज़रूरत से मजबूर हो गया, मगर अफ्सोस यह है कि आज मुसलमान ऐसे बहुत से फ़ज़ूल गुनाहों में भी अपनी जहालत या गुफ़लत से मुबतला नज़र आते हैं जिनमें न दुनिया का कोई फ़ायदा है न छोटे दर्जे की कोई राहत व लज्जत है। वजह यह है कि हलाल व हराम और जायज़ व ना जायज़ की तरफ़ ध्यान ही न रहा। नऊजुबिल्लाह मिनहु
– मआरिफुल कुरआन, हिस्सा 4, पेज 131
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