भलाई की तरफ़ बुलाना और हर बुराई और हर फ़साद से रोकना । जुबान दिलों को जोड़ती है, गीवत किसे कहते हैं ? Musalman दुनिया से kyu khatam हो rahe? | उम्मत किसे कहते हैं? – Dawat-e-Tabligh

परिचय
हज़रत मौलाना मुहम्मद यूसुफ़ साहब अलैहिर्रहमत ने अपने विसाल से तीन दिन पहले, यानी 26 ज़ीक़ादा ( मुताबिक़ 30 मार्च) मंगल के दिन, फ़ज्र की नमाज के बाद रायविन्ड (जिला लाहौर) में एक अहम तक़रीर फ़रमाई थी। यह आपकी जिंदगी की एक अहम आख़िरी तक़रीर थी। हमें यह तक़रीर मौलाना अब्दुल अज़ीज़ साहब खलनवी के जरिए हासिल हुई।
उम्मत बनाने की Mehnat
देखो, मेरी तबियत ठीक नहीं है, सारी रात मुझे नींद नहीं आई, इसके बावजूद ज़रूरी समझ के बोल रहा हूं। जो समझ के अमल करेगा, अल्लाह उसे चमकाएगा, वरना अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारेगा।
यह उम्मत बड़ी मशक़्क़त से बनी है, इसको उम्मत बनाने में हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और सहाबा किराम रजि० ने बड़ी मशक्कतें उठाई हैं और उनके दुश्मनों-यहूदियों और ईसाइयों ने हमेशा इसकी कोशिशें की हैं कि मुसलमान एक उम्मत न रहें, बल्कि टुकड़े-टुकड़े हों। अब मुसलमान अपना उम्मतपना (यानी उम्मत होने की सिफ़त) खो चुके हैं, जब तक ये उम्मत बने हुए थे, कुछ लाख सारी दुनिया पर भारी थे, एक पक्का मकान नहीं था, मस्जिद तक पक्की नहीं थी, मस्जिद में चराग़ तक नहीं जलता था। मस्जिदे नबवी में हिजरत के नवें साल चराग़ जला है। सबसे पहला चराग़ जलाने वाले तमीमदारी रजि० हैं वह सन् 09 हि० में इस्लाम लाए हैं और 09 हि० तक क़रीब क़रीब सारा अरब इस्लाम में दाखिल हो चुका था, अलग-अलग क़ौमें, अलग-अलग जुबानें, अलग-अलग क़बीले एक उम्मत बन चुके थे, तो जब यह सब कुछ हो गया, उस वक़्त मस्जिद नबवी में चराग़ जला, लेकिन हुजूर सल्ल० हिदायत का जो नूर लेकर तशरीफ़ लाये थे, वह पूरे अरब में, बल्कि उसके बाहर भी फैल चुका था और उम्मत बन चुकी थी, फिर यह उम्मत दुनिया में उठी, जिधर को निकली, मुल्क के मुल्क पैरों में गिरे।
उम्मत kaise बनी?
यह उम्मत इस तरह बनी थी कि उनका कोई आदमी अपने ख़ानदान, अपनी बिरादरी, अपनी पार्टी, अपनी क़ौम, अपने वतन, अपनी जुबान का हामी न था । माल व जायदाद और बीवी-बच्चों की तरफ़ देखने वाला भी न था, बल्कि हर आदमी सिर्फ यह देखता था कि अल्लाह व रसूल सल्ल० क्या फ़रमाते हैं। उम्मत जब ही बनती है, जब अल्लाह व रसूल सल्ल० के हुक्म के मुक़ाबले में सारे रिश्ते और सारे ताल्लुक्रात कट जाएं। जब मुसलमान एक उम्मत थे, तो एक मुसलमान के कहीं क़त्ल हो जाने से सारी दुनिया हिल जाती थी। अब हज़ारों-लाखों के गले कटते हैं और कानों पर जूं नहीं रेंगती।
उम्मत किसे कहते हैं?
उम्मत किसी एक क़ौम और एक इलाके के रहने वालों का नाम नहीं है, बल्कि सैकड़ों हजारों क्रीमों और इलाक़ों से जुड़ कर उम्मत बनती है जो कोई किसी एक क्रीम या एक इलाके को अपना समझता है और दूसरों को ग़ैर समझता है, वह उम्मत को ज़िब्ह करता है और उसके टुकड़े करता है और हुजूर सल्ल० की और सहाबा रजि० की मेहनतों पर पानी फेरता है, उम्मत को टुकड़े-टुकड़े होकर पहले ख़ुद हमने जिव्ह किया है। यहूदियों और ईसाइयों ने तो इसके बाद कटी-कटाई उम्मत को काटा है अगर मुसलमान अब फिर उम्मत बन जाएं तो दुनिया की सारी ताक़तें मिलकर भी उनका बाल बीका नहीं कर सकतीं। एटम बम और राकेट उनको ख़त्म नहीं कर सकेंगे, लेकिन अगर वे कौमों और इलाक़ों की अस्वीयतों की वजह से आपस में उम्मत के टुकड़े करते रहे, तो ख़ुदा की क़सम ! तुम्हारे हथियार और तुम्हारी फ़ौजें तुमको नहीं बचा सकेंगी।
Musalman दुनिया से kyu khatam हो rahe?
मुसलमान सारी दुनिया में इसलिए पिट रहा है और मर रहा है कि उसने उम्मतपने को ख़त्म करके हुजूर सल्ल० की कुर्बानी पर पानी फेर दिया है। मैं यह दिल के ग़म की बातें कह रहा हूं सारी तबाही इस वजह से है कि उम्मत उम्मत न रही, बल्कि यह भी भूल गए कि उम्मत क्या है और हुजूर सल्ल० ने किस तरह उम्मत बनाई थी।
उम्मत होने के लिए और मुसलमान के साथ ख़ुदाई मदद होने के लिए सिर्फ़ यह काफ़ी नहीं है कि मुसलमानों में नमाज हो, जिक्र हो, मदरसा हो, मदरसे की तालीम हो । हजरत अली रज़ियल्लाहु अन्हु का क़ातिल इब्ने मुलजिम ऐसा नमाजी और ऐसा ज़ाकिर (जिक्र करने वाला) था कि जब उसको क़त्ल करते वक़्त गुस्से में भरे लोगों ने उसकी जुबान काटनी चाही तो उसने कहा, सब कुछ कर लो, लेकिन मेरी जुबान मत काटो, ताकि जिंदगी की आख़िरी सांस तक मैं उससे अल्लाह का ज़िक्र करता रहूं। इसके बावजूद हुजूर सल्ल० ने फ़रमाया कि अली रजि० का क़ातिल मेरी उम्मत का सबसे ज़्यादा शक्क़ी और बद-बख़्ततरीन आदमी होगा और मदरसे की तालीम तो अबुल फ़ज़्ल और फ़ैज़ी ने भी हासिल की थी और ऐसी हासिल की थी कि क़ुरआन मजीद की तफ़्सीर बिला नुक्ते के लिख दी हालांकि उन्होंने ही अक्चर को गुमराह करके दीन को बर्बाद किया था, तो जो बातें इब्ने मुलजिम और अबुल फ़ज़्ल फ़ैज़ी में थी, वे उम्मत बनने के लिए और ख़ुदा की ग़ैबी नुसरत के लिए कैसे काफ़ी हो सकती है?
उम्मत को तोड़ दिया
हज़रत शाह इस्माईल शहीद रह० और हज़रत सैयद अहमद शहीद रह० और उनके साथी दीनदारी के लिहाज़ से बेहतरीन मज्मूआ थे। वे जब सरहदी इलाक़े में पहुंचे और वहां के लोगों ने उनको अपना बड़ा बना लिया तो शैतान ने वहां के कुछ मुसलमानों के दिलों में यह बात डाली कि ये दूसरे इलाक़े के लोग, उनकी बात यहां क्यों चले। उन्होंने उनके ख़िलाफ़ बग़ावत कराई, उनके कितने ही साथी शहीद कर दिए गए और इस तरह ख़ुद मुसलमानों ने इलाकाई बुनियाद पर उम्मतपने को तोड़ दिया। अल्लाह ने उसकी सज़ा में अंग्रेज़ों को मुसल्लत किया। यह ख़ुदा का अज़ाब था ।
उम्मत को तोड़ने वाली बातें
याद रखो, मेरी क़ौम और मेरा इलाक़ा और मेरी बिरादरी, ये सब उम्मत को तोड़ने वाली बातें हैं और अल्लाह तआला को ये बातें इतनी नापसन्द हैं कि हजरत साद बिन उबादा रजि० जैसे बड़े सहाबी से इस बारे में जो ग़लती हई, (जो अगर दब न गई होती तो उसके नतीजे में अंसार और मुहाजिरों में तफ़्रीक़ हो जाती। उसका नतीजा हज़रत साद रजि० को दुनिया ही में भुगतना पड़ा। रिवायतों में यह है कि उनको जिन्नात ने क़ल्ल कर दिया और मदीना में यह आवाज़ सुनाई दी और बोलने वाला कोई नजर न आया- इस वाक़िए ने मिसाल क़ायम कर दी और सबक़ दिया कि अच्छे से अच्छा आदमी भी अगर क़ौमियत या इलाके की बुनियाद पर उम्मतपने को तोड़ेगा तो अल्लाह उसको तोड़ के रख देगा।
उम्मत kab बनेगी ?
उम्मत जब बनेगी, जब उम्मत के सब तबके बिला तफ़्रीक़ उस काम में लग जाएं जो हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम दे के गए हैं और याद रखो उम्मतपने को तोड़ने वाली चीजें मामलों की और मुआशरत (रहन-सहन) की ख़राबियां हैं, एक फ़र्द या तबक़ा जब दूसरे के साथ नाइंसाफ़ी और जुल्म करता है और उसका पूरा हक़ उसको नहीं देता या उसको तकलीफ़ पहुंचाता है या उसकी तहक़ीर और बेइज्ज़ती करता है तो तफ़्रीक़ पैदा होती है और उम्मतपना टूटता है, इसलिए मैं कहता हूं कि सिर्फ़ कलिमा या तस्बीह से उम्मत नहीं बनेगी, उम्मत मामलों की, मुआशरत की इस्लाह से और सबका हक़ अदा करने और सबका इक्राम करने से बनेगी, बल्कि जब बनेगी, जब दूसरों के लिए अपना हक़ और अपना मुफ़ाद (स्वार्थ) कुर्बान किया जाएगा। हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और हज़रत अबू बक्र रजि० और हज़रत उमर रजि० ने अपना सब कुछ कुर्बान करके और अपने ऊपर तक्लीफें झेल के इस उम्मत को उम्मत बनाया था।
Kis tara बनी यह उम्मत।
हज़रत उमर रजि० के ज़माने में एक दिन लाखों-करोड़ों रुपए आए। उनकी तक्सीम का मश्वरा हुआ। उस वक़्त उम्मत बनी हुई थी। यह मश्वरा करने वाले किसी एक ही क़बीले या एक ही तबके के न थे, बल्कि ● अलग-अलग तबक़ों और क़बीलों के वे लोग थे, जो हुज़ूर सल्ल० की सोहबत के एतबार से बड़े और ख़वास समझे जाते थे। उन्होंने मश्वरे से आपस में तै किया कि बांटा इस तरह जाए कि सबसे ज़्यादा हुज़ूर सल्ल० के क़बीले वालों को दिया जाए। इसके बाद हज़रत अबू बक्र रजि० के क़बीले वालों को, फिर हज़रत उमर रजि० के क़बीले वालों को। इस तरह हज़रत उमर रजि० के रिश्तेदार तीसरे नम्बर पर आए। जब यह बात हज़रत उमर रजि० के सामने रखी गई तो आपने इस मश्वरे को कुबूल नहीं किया और फ़रमाया कि इस उम्मत को जो कुछ मिला है और मिल रहा है हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की वजह से और आपके सदके में मिल रहा है, इसलिए बस हुजूर सल्ल० ही के ताल्लुक़ को मेयार बनाया जाए, जो नसब में आपसे ज़्यादा क़रीब हों, उनको ज़्यादा दिया जाए, जो दूसरे, तीसरे, चौथे नम्बे पर हों, उनको उसी नम्बर पर रखा जाए। इस तरह सबसे ज़्यादा बनी हाशिम को दिया जाए, इसके बाद बनी अब्द मुनाफ़ को, फिर कुसई की औलाद को, फिर किलाब को, फिर काब को, फिर मुर्रा की औलाद को, इस हिसाब से हज़रत उमर रजि० का क़बीला बहुत पीछे पड़ जाता था और उसका हिस्सा बहुत कम हो जाता था। मगर हज़रत उमर रजि० ने यही फ़ैसला किया और माल की तक्सीम में अपने क़बीले को इतने पीछे डाल दिया। इस तरह बनी थी यह उम्मत।
उम्मत ko जोड़ कर रखने का faida
उम्मत बनने के लिए यह जरूरी है कि सबकी यह कोशिश हो कि आपस में जोड़ हो, फूट न पड़े। हुजूर सल्ल० की एक हदीस का मज़्मून है कि क़ियामत में एक आदमी लाया जाएगा, जिसने दुनिया में नमाज़, रोज़ा, हज, तब्लीग़ सब कुछ किया होगा, मगर वह अज़ाब में डाला जाएगा, क्योंकि उसकी किसी बात ने उम्मत में तफ़्रीक़ डाली होगी। उससे कहा जाएगा, पहले अपने इस एक लफ़्ज़ की सजा भुगत ले, जिसकी वजह से उम्मत को नुक्सान पहुंचा और एक दूसरा आदमी होगा, जिसके पास नमाज़, रोज़ा, हज वग़ैरह की बहुत कमी होगी और वह ख़ुदा के अज़ाब से बहुत डरता होगा, मगर उसको बहुत सवाब से नवाजा जाएगा। वह ख़ुद पूछेगा, यह करम मेरे किस अमल की वजह से है? उसको बताया जाएगा कि तूने फ़्लां मौके पर एक बात कही थी, जिससे उम्मत में पैदा होने वाला एक फ़साद रुक गया और बजाए तोड़ के जोड़ पैदा हो गया। यह सब तेरे इसी लफ़्ज़ का सिला और सवाब है।
जुबान दिलों को जोड़ती है
उम्मत के बनाने और बिगाड़ने में, जोड़ने और तोड़ने में सबसे ज़्यादा दखल जुबान का होता है, यह जुबान दिलों को जोड़ती भी है और फाड़ती भी है। जुबान से एक बात ग़लत और फ़साद की निकल जाती है और उस पर लाठी चल जाती है और पूरा फ़साद खड़ा हो जाता है और एक ही बात जोड़ पैदा कर देती है और फटे हुए दिलों को मिला देती है। इसलिए सबसे ज़्यादा ज़रूरत इसकी है कि जुबान पर क़ाबू हो और यह जब हो सकता है, जब बन्दा हर वक़्त इसका ख़्याल रखे कि ख़ुदा हर वक़्त और हर जगह उसके साथ है और उसकी हर बात को सुन रहा है।
मदीना में अंसार के दो क़बीले थे, औस और ख़ज़रज, इनमें पुश्तों से अदावत और लड़ाई चली आ रही थी । हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जब हिजरत फ़रमा कर मदीना पहुंचे और अंसार को इस्लाम की तौफ़ीक़ मिली तो हुजूर सल्ल० की और इस्लाम की बरकत से उनकी पुश्तों की लड़ाइयां खत्म हो गईं और औस व ख़ज़रज शीर व शकर हो गए। यह देखकर यहूदियों ने स्कीम बनाई कि किसी तरह उनको फिर से लड़ाया जाए। एक मज्लिस में जिसमें दोनों क़बीलों के आदमी मौजूद थे, एक साज़िशी आदमी ने उनकी पुरानी लड़ाइयों से मुताल्लिक़ कुछ शेर पढ़ के इश्तिआल पैदा कर दिया। पहले तो जुबानें एक दूसरे के ख़िलाफ़ चलीं, फिर दोनों तरफ़ से हथियार निकल आए। हुजूर सल्ल० से किसी ने जाकर कहा, आप फ़ौरन तशरीफ़ लाएं और फ़रमाया कि मेरे होते हुए तुम आपस में खून-खराबा करोगे। आपने बहुत मुख़्तसर मगर दर्द से भरा हुआ ख़ुत्बा दिया। दोनों फ़रीक़ों ने महसूस कर लिया कि हमें शैतान ने वरग़लाया, दोनों रोए और गले मिले ।
जब आदमी हर वक़्त ख़ुदा का ख्याल रखेगा, उसके क़ह व अज्ञाब से डरता रहेगा और हर दम उसकी ताबेदारी करेगा, तो शैतान भी उसे नहीं बहका सकेगा और उम्मत फूट से और सारी ख़राबियों से बची रहेगी।
‘ और अल्लाह की रस्सी को यानी उसकी पाक किताब और उसके दीन को सब मिलकर मज़बूती से थामे रहो, यानी पूरी इज्तिमाइयत के साथ और उम्मतपने की सिफ़त के साथ सब मिल-जुलकर दीन की रस्सी को थामे और उसमें लगे रहो और क़ौम की बुनियाद पर या इलाके की बुनियाद पर या जुबान की बुनियाद पर या किसी और बुनियाद पर टुकड़े-टुकड़े न हो और अल्लाह के इस एहसान को न भूलो कि उसने तुम्हारे दिलों की वह अदावत और दुश्मनी ख़त्म करके जो पुश्तों से तुममें चली आ रही थी, तुम्हारे दिलों में उलफ़त पैदा कर दी और तुम्हें आपस में भाई-भाई बना दिया और तुम आपस में लड़ते वक़्त दोज़ख़ के किनारे पर खड़े थे, बस गिरने ही वाले थे कि अल्लाह ने तुमको थाम लिया और दोज़ख़ से बचा लिया।’
भलाई की तरफ़ बुलाना और हर बुराई और हर फ़साद से रोकना
शैतान तुम्हारे साथ है, उसका इलाज यह है कि तुममें एक गिरोह ऐसा हो जिसका मौजू (विषय) ही भलाई की ओर नेकी की तरफ़ बुलाना और हर बुराई और हर फ़साद से रोकना हो । ‘उम्मत में एक गिरोह वह हो जिसका काम और मौज़ू ही यह हो कि वह दीन की तरफ़ और हर क़िस्म के ख़ैर की तरफ़ बुलाए ईमान के लिए और ख़ैर और नेकी के रास्ते पर चलने के लिए मेहनत करता रहे, नमाज़ों पर मेहनत करे, जिक्र पर मेहनत करे, हुजूर सल्ल० के लाए हुए इल्म पर मेहनत करें, बुराइयों और मासियतों से बचाने के लिए मेहनत करे और इन मेहनतों की वजह से उम्मत एक उम्मत बनी रहे।’
‘जो लोग इन हिदायतों के बाद भी शैतान की पैरवी करके और अलग-अलग राहों पर चल के इख़्तिलाफ़ पैदा करेंगे और उम्मतपने को तोड़ेंगे, तो उन पर ख़ुदा की सख्त मार पड़ेगी।’
जोड़ किन चिजो में है ?
दीन की सारी तालीम और सारी चीजें जोड़ने वाली और जोड़ने के लिए हैं, नमाज़ में जोड़ है, रोज़े में जोड़ है, हज में, क़ौमों और मुल्कों और मुख्तलिफ़ ज़ुबान वालों का जोड़ है, तालीम के हलके जोड़ने वाले हैं। मुसलमानों का इक्राम और आपसी मुहब्बत और तोहफ़े और तोहफ़ों का लेन-देन ये सब जोड़ने वाली और जन्नत में ले जाने वाली चीजें हैं और क़ियामत में उन आमाल के लिए मेहनतें करने वालों के चेहरे नूरानी होंगे और इनके बरख़िलाफ़ आपस में बुज़ व हसद, ग़ीबत, चुगलखोरी, तौहीन व तहक़ीर और दिल आज़ारी, ये सब फूट डालने वाले और तोड़ने वाले और दोजख में ले जाने वाले आमाल हैं और इन आमाल वाले आखिरत में रूसियाह होंगे।
‘जिन्होंने फूट डाल के और फूट डालने वाले आमाल करके उम्मत को तोड़ा होगा, वे क़ियामत के दिन क़ब्रों से काले मुंह उठेंगे और उनसे कहा जाएगा कि तुमने ईमान और इस्लाम के बाद कुफ़र वालों का तरीक़ा अख़्तियार किया। अब तुम यहां दोजख का अज्ञाब चखो और जो ठीक रास्ते पर चलते रहे होंगे, उनके चेहरे नूरानी और चमकते हुए होंगे और वे हमेशा अल्लाह की रहमत में और जन्नत में रहेंगे।’
किसी के ख़िलाफ़ साजिश
मेरे भाइयो, दोस्तो ये सब आयतें उस वक्त उतरी थीं, जब यहूदियों ने फूट अंसार में फूट डालने की कोशिश की थी और उनके दो कबीलों को एक दूसरे के मुक़ाबले में खड़ा कर दिया था। इन आयतों में मुसलमानों की आपसी और लड़ाई को कुर की बात कहा गया है और आख़िरत के अज्ञाब से डराया गया है। आज सारी दुनिया में उम्मतपना तोड़ने की मेहनत चल रही है। इसका इलाज और तोड़ यही है कि तुम अपने को हुजूर सल्ल० वाली मेहनत में लगा दो, मुसलमानों को मस्जिदों में लाओ, वहां ईमान की बातें हों, तालीम और जिक्र के हलके हों, दीन की मेहनत के मश्वरे हों, मुख्तलिफ तबकों के और मुख्तलिफ बिरादरियों के और मुख्तलिफ जुबानों वाले लोग मस्जिदे नववी के तरीक़े पर इन कामों में जुड़ें, जब उम्मतपना आएगा। उन बातों से बचें जिनसे शैतान को फूट डालने का मौका मिले जब तीन बैठें तो इसका ख्याल रखें कि पौधा हमारे साथ अल्लाह है चार-पांच बैठें तो हमेशा याद रखें कि पांचवां या छठा अल्लाह हमारे साथ ही मौजूद है और हमारी हर बात सुन रहा है और देख रहा है कि हम उम्मत बनाने की बात कर रहे हैं या उम्मतपना तोड़ने की। हम किसी की ग़ीवत और चुगलख़ोरी तो नहीं कर रहे, किसी के ख़िलाफ़ साजिश तो नहीं कर रहे।
उम्मत का तोड़
यह उम्मत हुजूर सल्ल० के ख़ून और फ़ाक़ों से बनी थी। अब हम अपनी मामूली मामूली बातों पर उम्मत को तोड़ रहे हैं। याद रखो, जुमा की नमाज छोड़ने पर भी इतनी पकड़ नहीं होगी, जितनी उम्मत के तोड़ने पर होगी। अगर मुसलमानों में उम्मतपना आ जाए तो वे दुनिया में हरगिज़ ज़लील न होंगे, रूस और अमेरिका की ताकतें भी उनके सामने झुकेंगी और उम्मतपना जब आएगा जब पर मुसलमानों का अमल हो, यानी हर मुसलमान दूसरे मुसलमान के मुक़ाबले में छोटा बने और जिल्लत व तवाजो अख्तियार करने को अपनाए। तब्लीग़ में इसी की मश्क्र करनी है। जब मुसलमानों में मोमिनीन’ वाली सिफ़त आ जाएगी तो वे दुनिया में यानी काफ़िरों के मुकाबले में जबरदस्त और ग़ालिब जरूर होंगे, चाहे वे काफ़िर यूरोप के हों या एशिया के ।
मेरे भाइयो, दोस्तो! अल्लाह और रसूल सल्ल० ने उन बातों से शिद्दत और सख्ती से मना फ़रमाया है, जिनसे दिलों में फर्क पड़े और फूट का खतरा हो। दो-दो, चार-चार अलग-अलग कानाफूसी करें, इससे शैतान दिलों में बद-गुमानी पैदा कर सकता है, इससे मना फ़रमाया गया और इसको शैतानी काम बताया गया ।
इसी तरह हक़ीर समझने, मज़ाक़ उड़ाने और दिल्लगी से से मना फ़रमाया गया।
इससे भी मना फ़रमाया गया कि दूसरे की कोई बुराई जो मालूम न हो, उसको टोह में पड़कर मालूम किया जाए और जो बुराई किसी की मालूम हो गई हो, उसको दूसरों के सामने जिक्र करने से मना फ़रमाया गया
गीवत किसे कहते हैं ?
गीवत को हराम किया गया। गीवत इसका नाम है कि जो वाकई बुराई किसी की मालूम हो, उसका ज़िक्र किसी से किया जाए।
दूसरों की इज़्ज़त
यह हक़ीर समझना, मज़ाक़ उड़ाना, टोह में पड़ना और ग़ीबत करना, सब वे चीजें हैं जो आपस में तफ़रक़ा पैदा करके उम्मतपने को तोड़ती हैं, इन सबको हराम क़रार दिया गया और एक दूसरे का इक्राम व एहतराम करना जिससे उम्मत जुड़ती बनती है, उसकी ताकीद फ़रमाई गई और दूसरों से अपना इक्राम चाहने से मना किया गया, क्योंकि इससे उम्मत बनती नहीं, बिगड़ती है। उम्मत जब बने जब हर आदमी यह तै करे कि मैं इज्जत के क़ाबिल नहीं हूं, इसलिए मुझे इज़्ज़त लेनी नहीं, बल्कि दूसरों की इज़्ज़त करनी है और दूसरे सब लोग इस क़ाबिल हैं कि मैं उनकी इज्जत करूं और उनका इक्राम करूं।
इज्जत और जिल्लत
अपने नफ़्सों और अपनी जातों को कुर्बान किया जाएगा तो उम्मत बनेगी और उम्मत बनेगी तो इज्जत मिलेगी। इज्जत और जिल्लत रूस और अमरीका तक के नक्शों में नहीं है, बल्कि ख़ुदा के हाथ में है और उसके यहां वाले उसूल और जाबता है। जो शख्स या क़ौम, खानदान, तबक़ा चमकाने उसूल और आमाल लावेगा, उसको चमका देंगे, जो मिटने वाले काम करेगा, उसको मिटा देंगे। यहूदी नबियों की औलाद हैं। उसूल तोड़े तो अल्लाह ने ठोकर मार कर उनको तोड़ दिया। सहावा किराम रजि० बुतपरस्तों की औलाद थे, उन्होंने चमकाने वाले उसूल अख्तियार किए तो अल्लाह ने उनको चमका दिया। अल्लाह की रिश्तेदारी किसी से नहीं है, उसके यहां उसूल और जाबता है।
जमाअतों (Allah ke raaste) में भेजो
दोस्तो! अपने को इस मेहनत पर झोंक दो कि हुजूर सल्ल० की उम्मत में उम्मतपना आ जाए, उसमें ईमान व यक़ीन आ जाए। यह जिक्र व तस्वीह और तालीम वाली, ख़ुदा के सामने झुकने वाली, ख़िदमत करने वाली, बरदशत करने वाली, दूसरों का एजाज व इक्राम करने वाली उम्मत बन जाए। नजवा न करने वाली, नाफरमानी न करने वाली, अपने भाइयों और साथियों को हक़ीर न समझने वाली, उनका मज़ाक़ न उड़ाने वाली, टोह में न रहने वाली और ग़ीबत न करने वाली उम्मत बन जाए। अगर किसी एक इलाके में भी यह मेहनत इस तरह होने लगे, जिस तरह होनी चाहिए तो सारी दुनिया में बात चल पड़े।
अब इसका एहतिमाम करो कि अलग-अलग क़ौमों, इलाक़ों और तबक़ों और अलग-अलग जुबान वालों को जोड़-जोड़ कर जमाअतों में भेजो और उसूल की पाबन्दी कराओ, फिर इनशाअल्लाह उम्मत बनने वाला काम होगा और शैतान और नफ़्स ख़ुदा ने चाहा तो कुछ भी न बिगाड़ सकेंगे।’
इसके बाद हजरत मौलाना ने देहात में मेहनत करने और फ़िज़ा बनाने पर ख़ास तौर से ज़ोर दिया और मामूल की तरह दुआ पर तक़रीर ख़त्म हुई ।