ईमानदार

इसी प्रकार सबसे बड़ा सदकर्म “ईमान” है, जिसके बारे में दुनिया के समस्त धर्म वाले यह कहते हैं कि सब कुछ यहीं छोड़ जाना है, मरने के बाद आदमी के साथ केवल ईमान जाएगा। ईमानदार या ईमान वाला उसे कहते हैं जो हक देने वाला हो, इसके विपरीत हक मारने वाले को ज़ालिम व काफिर (इन्कारी) कहते हैं। मनुष्य पर सबसे बड़ा हक उसके पैदा करने वाले का है। वह यह कि सबको पैदा करने वाला, जीवन और मृत्यु देने वाला स्वामी, पालनहार और उपासना के योग्य केवल अकेला अल्लाह है, तो फिर उसी की उपासना की जाए, उसी को स्वामी, लाभ हानि, सम्मान व अपमान देने वाला समझा जाए और उसके दिए हुए जीवन को उसकी इच्छा व आज्ञा अनुसार बसर किया जाए। उसी को माना जाए और उसी की मानी जाए। इसी का नाम ईमान है। केवल एक को मालिक माने बिना और उसी का आज्ञा पालन किए बिना मनुष्य ईमानदार अर्थात ईमान वाला नहीं हो सकता बल्कि वह बेईमान और काफिर कहलाएगा।
मालिक का सबसे बड़ा हक मार कर लोगों के सामने अपनी ईमानदारी जताना ऐसा ही है कि एक डाकू बहुत बड़ी डकैती से मालदार बन जाए और फिर दुकान पर लाला जी से कहे कि आपका एक रुपया मेरे पास हिसाब में अधिक आ गया है, आप ले लीजिए। इतना माल लूटने के बाद एक रुपए का हिसाब देना, ईमानदारी नहीं है। अपने मालिक को छोड़ कर किसी और की उपासना करना इससे भी बुरी और घिनौनी हरकत है।
ईमान क्या होता है?
ईमान केवल यह है कि मनुष्य अपने मालिक को अकेला माने, उस अकेले की उपासना और जीवन की हर घड़ी को मालिक की मर्ज़ी और उसके आदेशानुसार बसर करे। उसके दिए हुए जीवन को उसकी इच्छानुसार बसर करना ही दीन कहलाता है और उसके आदेशों को ठुकरा देना अधर्म है।
सच्चा धर्म
सच्चा दीन आरंभ से ही एक है और उसकी शिक्षा है कि उस अकेले ही को माना जाए और उसी का हुक्म भी माना जाए। अल्लाह ने कुरआन में कहा है-
“इस्लाम के अलावा जो भी किसी और दीन को अपनाएगा वह अस्वीकार्य होगा और ऐसा व्यक्ति परलोक में हानि उठाने वालो में होगा।” (अनुवाद कुरआन, आले इमरान 3:85)
मनुष्य की कमज़ोरी है कि उसकी नज़र एक विशेष सीमा तक देख सकती है। उसके कान एक सीमा तक सुन सकते हैं, उसके सूंघने चखने और छूने की शक्ति भी सीमित है। इन पांच इन्द्रियों से उसकी बुद्धि को जानकारी मिलती है, इसी तरह बुद्धि की पहुंच की भी एक सीमा है।
वह मालिक किस तरह का जीवन पसन्द करता है? उसकी उपासना किस तरह की जाए ? मरने के बाद क्या होगा? जन्नत किन लोगों को मिलेगी? वे कौन से काम हैं जिनके नतीजे में मनुष्य नरक में जाएगा? इन सारी बातों का पता मानव बुद्धि, सूझ बूझ और ज्ञान से नहीं लगाया जा सकता।
पैग़म्बर (सन्देष्टा )
मनुष्यों की इस कमज़ोरी पर दया करके उसके पालनहार ने अपने बन्दों में से उन महान मनुष्यों पर जिनको उसने इस दायित्व के योग्य समझा, अपने रिश्तों द्वारा उन पर अपना संदेश उतारा, जिन्होंने मनुष्य को जीवन बसर करने और उपासना के तौर तरीके बताए और जीवन की वे सच्चाइयां बतायीं जो वह अपनी बुद्धि के आधार पर नहीं समझ सकता था।
ऐसे बुजुर्ग और महान मनुष्य को नबी, रसूल या सन्देष्टा कहा जाता है। इसे अवतार भी कह सकते हैं बशर्ते कि अवतार का मतलब हो “वह मनुष्य, जिसे अल्लाह ने मनुष्यों तक अपना संदेश पहुंचाने के लिए चुना हो”। लेकिन आज कल अवतार का मतलब यह समझा जाता है कि ईश्वर मनुष्य के रूप में धरती पर उतरा है। यह व्यर्थ विचार और अंधी आस्था है। यह महा पाप है। इस असत्य धारणा ने मनुष्य को एक मालिक की उपासना से हटाकर उसे मूर्ति पूजा की दलदल में फंसा दिया।
वह महान मनुष्य जिनको अल्लाह ने लोगों को सच्चा रास्ता बताने के लिए चुना और जिनको नबी और रसूल कहा गया, हर कौम में आते रहे हैं। उन सब ने लोगों को एक अल्लाह को मानने, केवल उसी अकेले की उपासना करने और उसकी इच्छा से जीवन यसर करने का जो तरीका (शरीअत या धार्मिक कानून) वे लाए, उसकी पाबन्दी करने को कहा। इनमें से किसी संदेष्टा ने भी ईश्वर के अलावा अपनी या किसी और की उपासना की दावत नहीं दी, बल्कि उन्होंने उसे सबसे भयानक और बड़ा भारी अपराध ठहराते हुए सबसे अधिक इसी पाप से लोगों को रोका। उनकी बातों पर लोगों ने विश्वास कर लिया और सच्चे मार्ग पर चलने लगे।
रसूलों की शिक्षा
एक के बाद एक नबी और रसूल आते रहे, उनके धर्म का आधार एक होता। वे एक ही धर्म की ओर बुलाते कि एक ईश्वर को मानो, किसी को उसके वजूद और उसके गुणों व अधिकारों में साझी न ठहराओ, उसकी उपासना व आज्ञापालन में किसी को भागीदार न करो, उसके रसूलों को सच्चा जानो, उसके फ़रिश्ते जो उसके बन्दे और पवित्र प्राणी हैं, जो न खाते पीते हैं न सोते हैं, हर काम में मालिक की आज्ञा का पालन करते हैं। उसकी अवज्ञा नहीं कर सकते। वे अल्लाह की खुदाई या उसके मामलों में कण बराबर भी कोई दख़ल नहीं रखते हैं उनके अस्तित्व को मानो उसने अपने फ़रिश्ते द्वारा अपने रसूलों व नबियों पर जो वह्य (ईश वाणी) भेजी या किताबें भेजीं, उन सबको सच्चा जानो, मरने के बाद दोबारा जीवन पाकर अपने अच्छे बुरे कामों का बदला पाना है, इस विश्वास के साथ इसे सत्य जानो और यह भी मानो कि जो कुछ भाग्य में अच्छा या बुरा है, वह मालिक की ओर से है और रसूल उस समय अल्लाह की ओर जो शरीअत (विधान) और जीवन व्यापन का तरीका लेकर आया है, उस पर चलो और जिन बुराइयों और वर्जित कामों और वस्तुओं से उसने मना किया है, उनको न करो।
जितने अल्लाह के दूत आए सब सच्चे थे और उन पर जो पवित्र ईश वाणी उतरी, वह भी सच्ची थी। उन सब पर हमारा ईमान है और हम उनमें भेद नहीं करते। सत्य तो यह है कि जिन्होंने एक ईश्वर को मानने की दावत दी हो, उनकी शिक्षाओं में एक मालिक को छोड़ कर दूसरों की पूजा ही नही स्वयं अपनी पूजा की भी बात न हो, उनके सच्चे होने में क्या संदेह हो सकता है? अलबत्ता जिन महा पुरुषों के यहां मूर्ति पूजा या बहुत से उपास्यों की उपासना की शिक्षा मिलती है, या तो उनकी शिक्षाओं में परिवर्तन कर दिया गया है या वे अल्लाह के दूत ही नहीं हैं। मुहम्मद (सल्ल.) से पहले के सारे रसूलों के जीवन के हालात में हेर फेर कर दिया गया है और उनकी शिक्षाओं के बड़े हिस्से को भी परिवर्तित कर दिया गया है।
आखिरी नबी मुहम्मद (सल्ल.)
यह एक बहुमूल्य सत्य है कि हर आने वाले रसूल और नबी की जबान से और उस पर अल्लाह की ओर से उतारे गए विशेष सहीफों में एक अन्तिम दूत की भविष्यवाणी की गयी है और यह कहा गया है कि उनके आने के बाद और उनको पहचान लेने के बाद सारी पुरानी शरीअत (विधान) और धार्मिक कानून छोड़ कर उनकी बात मानी जाए और उनके द्वारा लाए गए अन्तिम कलाम (कुरआन) और सम्पूर्ण दीन पर चला जाए। यह भी इस्लाम की सच्चाई का सबूत है कि पिछली किताबों में बहुत अधिक हेर फेर के बावजूद उस मालिक ने अन्तिम दूत मुहम्मद (सल्ल.) के आने की सूचना को परिवर्तित न होने दिया, ताकि कोई यह न कह सके कि हमें तो कुछ ख़बर ही न थी। वेदों में उसका नाम नराशंस, पुरानों में कलकी अवतार, बाइबिल में फारकलीत और बौद्ध ग्रन्थों में अन्तिम बुद्ध आदि लिखा गया है।
इन धार्मिक पुस्तकों में मुहम्मद (सल्ल.) के जन्म स्थान, जन्म का युग और उनके गुणों व विशेषताओं आदि के बारे में स्पष्ट इशारे दिए गए हैं।
Prophet Mohmmad (सल्ल.) की पवित्र जीवनी:
अब से लगभग साढ़े चौदह सौ साल पहले वह अन्तिम नबी व रसूल मुहम्मद (सल्ल.) सऊदी अरब के प्रसिद्ध शहर मक्का में पैदा हुए। जन्म से कुछ महीने पूर्व ही आपके बाप अब्दुल्लाह का देहान्त हो गया था। मां आमना भी कुछ अधिक समय तक जीवित नहीं रहीं। पहले दादा अब्दुल मुत्तलिब और उनके देहान्त के बाद चाचा अबू तालिब ने उन्हें पाला। आप अपने गुणों, भलाइयों व अच्छाइयों के कारण शीघ्र ही सारे मक्का शहर की आंखों का तारा बन गए। जैसे जैसे आप बड़े होते गए, आप से लोगों का प्रेम बढ़ता गया। आपको सच्चा और ईमानदार कहा जाने लगा। लोग सुरक्षा के लिए अपनी बहुमूल्य वस्तुएं आपके पास रखते, अपने आपसी विवादों व झगड़ों का फैसला कराते लोग मुहम्मद (सल्ल.) को हर अच्छे काम में आगे पाते। आप अपने वतन में हों या सफ़र में, सब लोग आपके गुणों के गुन गाते।
उन दिनों वहां अल्लाह के घर काबा में 350 बुत, देवी देवताओं, बुजुर्गों व रसूलों की मूर्तियां रखी हुई थीं। पूरे अरब देश में बहुदेववाद (शिर्क) और कुफ के अलावा हत्या, मारधाड़, लूटमार, गुलामों और औरतों के अधिकारों का हनन, ऊंचनीच, धोखाधड़ी, शराब, जुआ, सूद, निराधार बातों पर युद्ध, जिना (व्यभिचार) जैसी न जाने कितनी बुराइयां फैली हुई थीं।
मुहम्मद (सल्ल.) जब 40 साल के हुए तो अल्लाह ने अपने फ़रिश्ते जिबरईल (अलैहि.) द्वारा आप पर कुरआन उतारना आरंभ किया और आपको रसूल बनाने की शुभ सूचना दी और लोगों को एक अल्लाह की उपासना व आज्ञा पालन की ओर बुलाने की ज़िम्मेदारी डा ली।
सच्चा धर्म केवल एक है
इसलिए यह कहना किसी तरह उचित नहीं कि सारे धर्म खुदा की ओर ले जाते हैं। रास्ते अलग अलग हैं, मन्जिल एक है। सच केवल एक होता है, झूठ बहुत हो सकते हैं। प्रकाश एक होता है अंधेरे बहुत हो सकते हैं। सच्चा धर्म केवल एक है। वह आरंभ ही से एक है। इसलिए उस एक को मानना और उसी एक की मानना इस्लाम है। दीन कभी नहीं बदलता, केवल शरीअतें समय के अनुसार बदलती रहीं हैं और वह भी उसी मालिक के बताए हुए तरीके पर जब मुनष्य की नस्ल एक है और उनका मालिक एक है तो रास्ता भी केवल एक है। कुरआन कहता है
“दीन तो अल्लाह के निकट केवल इस्लाम ही है।” (अनवाद कुरआन, आले इमरान 3:1 9)
सच की आवाज़
अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्ल.) ने एक पहाड़ की चोटी पर चढ़ कर ख़तरे से सूचित करने के लिए आवाज़ लगायी लोग इस आवाज़ पर तेज़ी से आकर जमा हो गए इसलिए कि यह एक सच्चे और ईमानदार आदमी की आवाज़ थी ।
आपने सवाल किया – “यदि मैं तुम से कहूं कि इस पहाड़ के पीछे से एक बहुत बड़ी सेना चली आ रही है और तुम पर हमला करने वाली है तो क्या तुम विश्वास करोगे?”
सबने एक आवाज़ होकर कहा “मला आपकी बात पर कौन विश्वास नहीं करेगा। आप कभी झूठ नहीं बोलते और हमारी तुलना में पहाड़ की दूसरी दिशा में देख भी रहे हैं।” तब आपने नरक की भयानक आग से डराते हुए उन्हें बहुदेववाद व मूर्ति पूजा से रोका और एक अल्लाह की उपासना और आज्ञा पालन अर्थात इस्लाम की ओर बुलाया।
सत्य की जीत
सच्चाई की सदैव विजय होती है चाहे देर से हो। 23 साल की कड़ी मेहनत व परिश्रम के बाद आपने सब के दिलों पर विजय पाली और सच्चाई के मार्ग की ओर आपकी निःस्वार्थ दावत ने पूरे अरब देश को इस्लाम की ठंडी छांव में ला खड़ा किया। इस प्रकार उस समय की परिचित दुनिया में एक क्रान्ति पैदा हुई। मूर्ति पूजा बन्द हुई ऊंच नीच समाप्त हुई और सब लोग एक ईश्वर को मानने और उसी की उपासना व आज्ञा पालन करने वाले और एक दूसरे को भाई जानकर उनका हक देने वाले बन गए।